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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २६४ श्रमण-सूत्र अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए । बाद में रजोहरण से भूमि प्रमार्जन कर, गुरुदेव के पास गोदोहिका ( उकडू) अासन से बैठकर, प्रथम के तीन श्रावर्त 'अहो, कायं, काय' पूर्वोक्त विधि के अनुसार करके 'संफासं' कहते हुए गुरु चरणों में मस्तक लगाना चाहिए । तदनन्तर 'खमणिज्जो मे किलामो' के द्वारा चरण स्पर्श करते समय गुरुदेव को जो बाधा होती है, उसकी क्षमा मांगी जाती है । पश्चात् 'अप्प किलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइक्कतो' कहकर दिन-सम्बन्धी कुशलक्षेम पूछा जाता है। अनन्तर गुरुदेव भी 'तथा' कह कर अपने कुशल क्षेम की सूचना देते हैं और फिर उचित शब्दों में शिष्य का कुशल क्षेम भी पूछते हैं। .. तदनन्तर शिष्य 'ज त्ता मे 'ज व णि' 'जं च भे'-इन तीन श्रावतों की क्रिया करे एवं संयम यात्रा तथा इन्द्रिय सम्बन्धी और मनः सम्बन्धी शान्ति पूछे। उत्तर में गुरुदेव भी 'तुमं पि वट्टइ' कहकर शिष्य से उसको यात्रा और यापनीय सम्बन्धी सुख शान्ति पूछे । तत्पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करके 'खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कम' कह कर शिष्य विनम्र भाव से दिन सम्बन्धी अपने अपराधों की क्षमा माँगता है। उत्तर में गुरु भी 'अहमपि क्षमयामि' कह कर शिष्य से स्वकृत भूलों की क्षमा माँगते हैं । क्षामणा करते समय शिष्य और गुरु के साम्य प्रधान सम्मेलन में क्षमा के कारण विनम्र हुए दोनों मस्तक कितने भव्य प्रतीत होते हैं ? ज़रा भावुकता को सक्रिय कीजिए । चन्दन प्रक्रिया में प्रस्तुत शिगेनमन आवश्यक का भद्रबाहु श्रुत केवलो बहुत सुन्दर वर्णन करते हैं । इसके बाद 'आवस्सियाए' कहते हुए अवग्रह से बाहर आना चाहिए। ... अवग्रह से बाहर लौट कर-पडिकमामि' से लेकर 'अप्पाणं वोसिरानि' तक का सम्पूर्ण पाठ पढ़ कर प्रथम खमासमणो पूर्ण करना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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