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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १० श्रावश्यक दिग्दर्शन चोटी पर से फूंक मार कर उड़ा दे । वह स्तम्भ परमाणुरूप में होकर विश्व में इधर-उधर फैल जाय ! क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई देवता उन परमाणुत्रों को फिर इकट्ठा कर ले और उन्हें पुनः उसी स्तम्भ के रूप में बदल दे ? यह असंभव, सम्भव है, संभव हो भी जाय । परन्तु मनुष्य जन्म का पाना बड़ा ही दुर्लभ है, दुष्प्राप्य है ।" -- ( श्रावश्यक नियुक्ति गाथा ८३२ ) ऊपर के उदाहरण, जैन - संस्कृति के वे उदाहरण हैं, जो मानवजन्म की दुर्लभता का डिंडिमनाद कर रहे हैं । जैन धर्म के अनुसार देव होना उतना दुर्लभ नहीं है, जितना कि मनुष्य होना दुर्लभ है ! जैन साहित्य में श्राप जहाँ भी कहीं किसी को सम्बोधित होते हुए देखेंगे, वहाँ 'देवापिय' शब्द का प्रयोग पायेंगे । भगवान् महावीर भी श्राने वाले मनुष्यों को इसी 'देवापिय' शब्द से सम्बोधित करते थे । ''देवापिय' का अर्थ है - "देवानुप्रिय' । अर्थात् 'देवताओं को भी प्रिय ।' मनुष्य की ष्ठता कितनी ऊँची भूमिका पर पहुँच रही है । दुर्भाग्य से मानव जाति ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, और वह अपनी श्रेष्ठता को भूल कर श्रवमानता के दल-दल में फँस गई है । 'मनुष्य ! तू देवताओं से भी ऊँचा है । देवता भी तुझसे प्रेम करते हैं । वे भी मनुष्य बनने के लिए आतुर हैं ।' कितनी विराट प्रेरणा है, सुप्त आत्मा को जगाने के लिए । मनुष्य की जैन संस्कृति का अमर गायक आचार्य अमित गति कहता है कि'जिस प्रकार मानव लोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशुत्रों में सिंह, व्रतों में प्रशम भाव, और पर्वतों में स्वर्णगिरि मेरु प्रधान है - श्रेष्ठ है, उसी प्रकार संसार के सब जन्मों में मनुष्य जन्म सर्व श्रेष्ठ है ।' नरेषु चक्री त्रिदशेषु वत्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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