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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org क्षामरणा-सूत्र २६३ जरा इस ओर लक्ष्य दें तो श्रमण-संघ का कितना अधिक अभ्युदय एवं श्रात्म-कल्याण हो । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir क्षमा प्रार्थना करते समय अपने आपको इस प्रकार उदात्त एवं मधुर भावना में रखना चाहिए कि - हे विश्व के समस्त त्रस स्थावर जीवो ! हम तुम सब श्रात्म-दृष्टि से एक ही हैं, समान ही हैं । यह जो कुछ भी बाह्य विरोधता है, विषमता है, वह सब कर्म जन्य है, स्वरूपतः नहीं । बाह्य भेदों को लेकर क्यों हम परस्पर एक दूसरे के प्रति द्व ेष, घृणा, अपमान तथा वैर-विरोध करें | हम सब को तो सदा सर्वदा भ्रातृभाव एवं स्नेहभाव ही रखना चाहिए । अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए मैं तुम्हारे सौंसर्ग में अनन्त बार आया हूँ और उस सौंसर्ग में स्वार्थ से, क्रोध से, विचार से, अहंकार से, द्वष से, किसी भी प्रकार से किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक तथा कायिक पीड़ा पहुँचाई हो तो उसके लिए अन्तःकरण से क्षमायाचना करता हूँ। मेरी हृदय से यही भावना है- शिवमस्तु सर्व जगतः, पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः || प्रश्न है कि 'सवे जीवा खमंतु' क्यों कहा जाता है ? सब जीव मुझे क्षमा करें, इसका क्या अभिप्राय है ? वे क्षमा करें या न करें, हमें इससे क्या ? हमें तो अपनी ओर से क्षमा माँग लेनी चाहिए । समाधान है कि प्रस्तुत पाठ में करुणा का अपार सागर तरंगित हो रहा है। कौन जी कहाँ है ? कौन क्षमा कर रहा है कौन नहीं ? कुछ पता नहीं । फिर भी अपने हृदय की करुणा भावना है कि मुझे सब जीव क्षमा करदे | क्षमा करदें तो उनकी आत्मा भी क्रोधनिमित्तक कर्मबन्ध से For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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