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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६२ www.kobatirth.org श्रमण-सूत्र Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रतिक्रमण की समाप्ति पर प्रस्तुत दामणासूत्र पढ़ते समय जब साधक दोनों हाथ जोड़कर क्षमा याचना करने के लिए खड़ा होता है, तत्र कितना सुन्दर शान्ति का दृश्य होता है ? अपने चारों ओर अवस्थित संसार के समस्त छोटे-बड़े प्राणियों से गद्गद् होकर क्षमा माँगता हुद्या साधक, वस्तुतः मानवता की सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर पहुँच जाता है । कितनी नम्रता है ? गुरुजनों से तो क्षमा माँगता ही है, किन्तु अपने से छोटे शिष्य आदि से भी क्षमायाचना करता है । उस समय उसके हृदय से छोटे-बड़े का भेद विलुप्त हो जाता है और अखिल विश्व मित्र के रूप में आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है । इस प्रकार क्षमायाचना की साधना से अपराधों के संस्कार जाते रहते हैं, और मन पापों के भार से सहसा हलका हो जाता है | क्षमा से हमारे ग्रह भाव का नाश होता है और हृदय में उदार भावना का आध्यात्मिक पुत्र खिल उठता है । अपने हृदय को निर्वैर बना लेना ही क्षमापना का उद्देश्य है । हमारी क्षमा में विश्वमैत्री का आदर्श रहा हुआ है । और यह विश्व मैत्री हा जैन-धर्म का प्राण है । हृदय को किसी भी किसी भी प्रकार की हृदय में की ओर से करुणामूर्ति भगवान् महावीर, क्षमा पर अत्यधिक बल देते हैं । भगवान् की क्षमा का आदर्श है कि तुमने दूसरे के प्रकार की चोट पहुँचाई हो, दूसरे के कलुषता उत्पन्न की हो, अथवा दूसरे अपने हृदय में वैरविरोध एवं कलुपता के भाव पैदा किए हों, तो उक्त वैरविरोध तथा कलुबता को क्षमा के श्रादान प्रदान द्वारा तुरन्त धोकर साफ कर दो। वैरविरोध की कालिमा को जरा-सी देर के लिए भी हृदय में न रहने दो । बृहत्कल्पसूत्र में भगवान महावीर का श्रमण संघ के प्रति गंभीर एवं म सन्देश है कि - "यदि श्रमणसंघ में किसी से किसी प्रकार का कलह हो जाय तो जब तक परस्पर क्षमा न माँग लें तब तक आहार पानी लेने नहीं जा सकते, शौच नहीं जा सकते, स्वाध्याय भी नहीं कर सकते ।” क्षमा के लिए कितना कठोर अनुशासन है । आज के कलह-प्रिय साधु, For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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