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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७६ श्रमण-सूत्र करते हैं, जो हमने प्रतिमाओं के वर्णन में कालमान के सम्बन्ध में लिखा है। अर्थात् एक मास से लेकर यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा के ग्यारह मास । परन्तु इस मास-वृद्धि में वे पूर्व की प्रतिमाओं के काल को मिलाने का उल्लेख करते हैं। वैसे वे प्रत्येक प्रतिमा का काल एक मास ही मानते हैं। उनके कथनानुसार, जैसा कि वे दूसरी प्रतिमा के वर्णन में लिखते हैं,-'इस प्रतिमा के लिए दो मास समय अर्थात एक मास पहली प्रतिमा का और एक मास इस प्रतिमा का निर्धारित किया है।' सब प्रतिमाओं का काल ग्यारह मास ही होना चाहिए । परन्तु प्राचार्य श्री उपसंहार में सब प्रतिमानों का पूर्णकाल साढे पाँच वर्ष लिखते हैं । यह जोड़ में भूल कैसे हुई ? पूर्वापर का विरोध संगति चाहता है। प्रतिमाधारक श्रावक, प्रतिमा की पूर्ति के बाद सयम ग्रहण कर लेता है। यदि इसी बीच में मृत्यु हो जाय तो स्वर्गारोही बनता है। 'तत्प्रतिपत्त रनन्तरमेकादिभिर्दिनैः संयम प्रतिपल्या जीविततयाद् वा।' भावविजय, उत्तराध्ययन वृत्ति २१ । ११ । परन्तु यह नियमेन सयम ग्रहण करने का मत कुछ प्राचार्यों को अभीट नहीं है। कार्तिक सेठ ने सौ वार प्रतिमा ग्रहण की थी, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं की चर्या उत्तरोत्तर अर्थात् आगे की प्रतिमाओं में भी चालू रहती है। देखिए, भावविजय जी क्या लिखते हैं ? "प्रथमोक्तं च अनुष्ठानमग्रेतनायां सर्व कार्य यावदेकादश्यां पूर्व प्रतिमादशोकमपि ।' उत्तराध्ययन ३१ । ११ उपासक का अर्थ श्रावक होता है। और प्रतिमा का अर्थ--- प्रतिज्ञा = अभिग्रह है। उपासक की प्रतिमा, उपासक प्रतिमा कहलाती है । ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का साधु के लिए अतिचार यह है कि इन पर श्रद्धा न करना, अथवा इनकी विपरीत प्ररूपणा करना । इसी अश्रद्धा एवं विपरीत प्ररूपणा का यहाँ प्रतिक्रमण है । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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