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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भयादि-सूत्र १७५ - (१०) उद्दिष्ट भक्त त्याग प्रतिमा-इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग होता है । अर्थात् अपने निमित्त बनाया गया भोजन भी ग्रहण नहीं किया जाता । उस्तरे से सर्वथा शिरो मुण्डन करना होता है, या शिखामात्र रखनी होती है। किसी गृह-सम्बन्धी विषयों के पूछे जाने पर यदि जानता है तो जानता हूँ और यदि नहीं जानता है तो नहीं जानता हूँ--इतना मात्र कहे । यह प्रतिमा जघन्य एक रात्रि की, उत्कृष्ट दश मास की होती है। (११) श्रमणभूत प्रतिमा-इस प्रतिमा में श्रावक श्रमण तो नहीं किन्तु श्रमण भूत = मुनिसदृश हो जाता है । साधु के समान वेष बनाकर और साधु के योग्य ही भाण्डोपकरण धारण करके विचरता है । शक्ति हो तो लुञ्चन करता है, अन्यथा उस्तरे से शिरोमुण्डन करता है । साधु के समान ही निर्दोष गोचरी करके भिक्षावृत्ति से जीवन यात्रा चलाता है । इसका कालमान जघन्य एक रात्रि अर्थात् एक दिन रात और उत्कृष्ट ग्यारह मास होता है। प्रतिमानों के कालमान के सम्बन्ध में कुछ मतभेद हैं । आगमों के टीकाकार कुछ प्राचार्य कहते हैं कि सब प्रतिमाओं का जघन्यकाल एक, दो, तीन श्रादि का होता है और उत्कृष्ट काल क्रमशः एक मास, दो मास यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा का ग्यारह मास होता है। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में भावविजयजी लिखते हैं-इह या प्रतिमा यावत् संख्या स्यात सा उत्कर्षतस्तावन्मासमाना यावदेकादशी एकादशमास प्रमाणा। जघन्यतस्तु सर्वा अपि एकाहादिमानाः स्युः ।' उत्तराध्ययन ३१ । ११ । दशाश्रु त स्कन्ध सूत्र में ग्यारह प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है। परन्तु वहाँ पहली चार प्रतिमाओं के काल का उल्लेख नहीं है । हाँ पाँचवीं से ग्यारहवीं प्रतिमा तक के काल का उल्लेख वही है, जो हमने ऊपर लिखा है। अर्थात् जघन्य एक, दो, तीन दिन आदि और उत्कृष्ट क्रमशः पाँच, छह, सात यावत् ग्यारह मास । परन्तु प्राचार्य श्री आत्मारामजी महाराज अपनी दशाश्रु त स्कन्ध की टीका में वही उल्लेख For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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