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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गौरव-सूत्र १२३ लोभ के कारण होने वाला श्रात्मा का अशुभ भाव, भाव गौरव है । प्रस्तुत सूत्र में भाव गौरव की चर्चा है । भाव गौरव अात्मा को ससार सागर में डुबाये रखता है, ऊपर उभरने नहीं देता । ___ भाव गौरव के तीन भेद हैं-ऋद्धि-गौरव, रस-गौव और सातागौरव । इनके स्पष्टीकरण के लिए नीचे देखिए । ऋद्धि-गौरव राजा आदि के द्वारा प्राप्त होने वाला उँचा पद एवं सत्कार सम्मान पाकर अभिमान करना, और प्राप्त न होने पर उसकी लालसा रखना, ऋद्धि गौरव है । संक्षेप-भाषा में सत्कार-सम्मान, वन्दन, उग्र व्रत, विद्या आदि का अभिमान करना, ऋद्धि गौरव कहलाता है । रस-गौरव ___ दूध, दही, घृत श्रादि मधुर एवं स्वादिष्ट रसों की इच्छानुसार प्राप्ति होने पर अभिमान करना, और प्राप्ति न होने पर उनकी लालसा रखना, रस गौरव है । आचार्य जिनदास महत्तर रस-गौरव के लिए जिह्वा-दण्ड शब्द का बहुत सुन्दर प्रयोग करते हैं । 'रसगारवे जिब्भादंडो।' साता-गौरव साता का अर्थ-आरोग्य एवं शारीरिक सुख है । अतएव आरोग्य, शारीरिक सुख तथा वस्त्र, पात्र, शयनासन आदि सुख के साधनों के मिलने पर अभिमान करना, और न मिलने पर उसकी लालसा = इच्छा करना, साता गौरव है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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