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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७० ) अर्थ -- संसार में चोरासी लाख ८४००००० योनियों के स्थान में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहां पर भाव लिङ्ग रहित मुनि होकर न भ्रम होय ? अर्थात सर्व स्थानों में समस्त योनि धारण की हैं। भावेण होइ लिंगी हुलिङ्गी होई देव्वमित्तेण । तम्हा कुणिभावं किं कीरइ दव्वलिङ्गेण ॥ ४८ ॥ भावेन भवति लिङ्गी न स्फुटं भवति द्रव्यमात्रेण । तस्भात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिङ्गेन || अर्थ-भाव लिङ्ग से ही जिन लिङ्गी मुनि होता है, द्रव्यलिङ्ग से ही लिङ्गी नहीं होता इससे भावलिङ्ग को धारण करो द्रव्यलिङ्ग से क्या हो सक्ता है । दण्डय यरं सयलं दहिओ अन्यंतरेण दोसेण । जिण लिङ्गेण विवाहु पडिओ सो उरयं णरयं ॥ ४९ ॥ दण्डक नगरं सकलं दग्धा अभ्यन्तरेण दोषेण । जिनलिङ्गेनापि वाहुः पतितः स रौरवं नरकम् ॥ अर्थ -- वाह्य जिन लिङ्गधारी बाहुनामा मुनि ने दोष से ( कषायों से ) समस्त दण्डक राज्य को और उसके नगर को भस्म किया और आप भी सप्तम नरक के रौरव नरक में नारकी हुवा । अभ्यन्तर दक्षिण भरतक्षेत्र में कुम्भकारक नगर का स्वामी दण्डक राजा था जिसकी सुव्रता नामा रानी थी और वालक नामा मन्त्री था किसी समय अभिनन्दन आदि ५०० मुनि आये तिनकी बन्दना को समस्त नगर निवासी गए और राजा भी गया । बिद्याभिमानी बालक मन्त्री ने खण्डकमुनि के साथ बाद आरम्भ किया । परास्त होकर मन्त्री ने वहरुपिया भाडों से सुव्रता रानी और दिगम्बरमुनि का स्वांग बनवाकर उनको रमते हुवे दिखाये राजा ने क्रोधित होकर ( समस्त मुनि घाणी में पेले। वे मुनि उस उपसर्ग को सहकर उत्तम गति को प्राप्त भये । पश्चात् एक वाहुनामकमुनि आहार के वास्ते नगर जाते थे तिनको लोको ने रोका और राजा की दुष्टता वर्णन For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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