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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर तिष्टा हूं ऐसा संज्वलन मान का अंश बना रहा । जब भरतेश्वर ने एक वर्ष पीछे उनकी स्तुति की तब मान दूर होते ही जगत् प्रकाशक केवल ज्ञान प्रकट हुवा और मुक्ति पधारे । इससे आचार्य कहै हैं कि ऐसे २ धीर वीर भी विना भाव शुद्धि के मुक्त नहीं हुवे तो अन्य की क्या कथा इससे भो मुनिवर भाव शुद्धि करो। महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादि चत्तवावारो। सवणवणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय ॥ ४५ ॥ मधुपिङ्गो नाम मुनिः देहाहारत्यक्तव्यापारः । श्रमणत्वं न प्राप्तः निदान भात्रेण भव्यनुत ? ॥ अर्थ-भव्य पुरुषों से नमस्कार किये गये हे मुनि शरीर और भोजन का त्याग किया है जिसने ऐसा मधुपिङ्गलनामा मुनि निदान मात्र के निमित्त से श्रमणपने को (भावमुनिपने को) न प्राप्त हुवा । मधुपिङ्गल की कथा पद्मपुराण हरि वंश पुराण में वर्णित है। अण्णं च वसिट्टमणि पत्तो दुक्खं णियाण दोसेण । सो णच्छि वास ठाणो जच्छ ण दुरुटुल्लिओजीवो ।।४६।। अन्मञ्च वशिष्टमुनिः प्राप्तः दुःखं निदान दोषेण । तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रान्तो जीवः ॥ अर्थ-और भी एक वशिष्टनामा मुनि ने निदान के दोषकर दुःखों को पाया है। हे भव्योत्तम ? ऐसा कोई भी निवास स्थान नहीं है जहां यह जीव भ्रमा न हो । वशिष्ट तापसी ने चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधित होकर जिन दीक्षा ली और अनेक दुद्धर तप किये परन्तु निदान करने से उग्रसेन का पुत्र कंस हुवा और कृष्णनारायण के हाथ से मृत्यु को पाकर नरक गया । सो णच्छितं पएसो चउरासीलक्खजोणि वासम्मि । भाव विरओवि सवणो जच्छ ण टुरुटिल्लिओ जीवो ॥४७॥ ___स नास्ति त्वं प्रदेशः चतुरशीति लक्षयोनि वासे । भावविरतोऽपि श्रवण यत्र न भ्रान्तः जीवः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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