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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४८) अर्थ-सर्वक अर्हन्तदेवका भाव (स्वरूप) ऐसा है कि सम्यकस्वरूप दर्शन (सामान्यावलोकन ) कर स्वपर को देखे हैं और मानकर समस्त द्रव्य और उनकी पर्यायों को जाने हैं तथा क्षायिक सम्यक्त्व गुणकर सहित है। भावार्थ-अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनन्तसुख और अनन्त वीर्य यह चार गुणघातिया कर्मोके नाश से अर्हन्त अवस्था में प्रकट होते हैं। सुण्णहरे तरुहिछे उज्जाणे तहमसाणवासे वा।। गिरिगुह गिरिसिहरेवा भीमबणे अहव वासते वा ॥४२॥ शून्यग्रहे तरुमूले उद्याने तथा श्मशानवासे वा । गिरिगुहायां गिरिसिखिरेवा भीमवने अथवा वसतौवा ॥ अर्थ-शून्यग्रह, वृक्ष की जड़, घाग, श्मशान भूमि, पर्वतों की गुफा, पवर्ती के सिखिर, भयानक बन, अथवा वसति का . (धर्मशाला) में दीक्षित (प्रतधारी) मुनी निवास करते हैं। सवसासत्तंतित्यं वच चइदालत्तयं च वुत्तेहिं । जिणभवणं अहवेजे जिणमग्गे जिणवराविति ॥४३॥ स्ववशाशक्तं तीथै वचश्चैत्यालय त्रयं च । ___ जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विन्दन्ति ॥ अर्थ-स्वाधीनमुनिकरआशक्त स्थान में अर्थात ऐसे स्थान में जहां मुनि तप करते हैं और निर्वाणक्षेत्र आदि तीर्थ स्थान में शब्दागम परमागम युक्त्यागम यह तीनो ध्यान करने योग्य हैं तथा जिन मन्दिर ( कृत्रिम आकृत्रिम लोकत्रय में स्थित जिनालय ) भी ध्यान करने योग्य है ऐसा जिन शास्त्रो मे जिनेन्द्रदेव कहते हैं। पंचमहव्वयजुत्ता पंचेंदिय संजया निरावेक्खा । सम्झायशाणजुत्ता मुणिवस्वसहाणि इच्छति ॥४४॥ पञ्चमहाब्रतयुक्ता पञ्चेन्द्रियसंयता निरापेक्षा । खाध्यायध्यानयुक्ता मुनिवरवृषभानीच्छन्ति । For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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