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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४७ ) दसपाणपज्जत्ती असहस्सायलक्खणाभणिया। गोखीर संखधवलं मांसरुहिरं च सव्वंगे ॥ ३८॥ दश प्राणाः पर्याप्तयः अष्टसहश्रं च लक्षणानां मणितम् । गोक्षीरसंखधवलं मांसं रुधिरं च सर्वाङ्गे ॥ अर्थ-अर्हन्तदेव के द्रव्य अपेक्षा दश प्राण हैं षटपर्याप्ति हैं आठ अधिक एक हजार १००८ लक्षण हैं और जिनके समस्त शरीर में जो मांस और रुधिर है वह दुग्ध और शंखके समान सुफैद है। एरिस गुणेहिं सव्वं अइसयवं तं सुपरिमलामोयं । ओरालियं च काओ णायच् अरुह पुरुसस्स ॥ ३९ ॥ इदृशगुणैः सर्वः अतिशयवान् सुपरिमलामोदः । औदारिकश्च कायः ज्ञातव्यः अर्हत्पुरुषस्य ॥ अर्थ-एसे गुणोंकर सहित समस्तही देह अतिशयवान और अत्यन्त सुगन्धिकर सुगन्धित है ऐसा परमौदारिक शरीर अहन्त पुरुषका जानना। मयरायदोसरहिओ कसायमल वजओयसुविसुदो। चित्तपरिणामरहिदो केवलभावेमुणेयव्वो ॥४०॥ मदरागदोषरहितः कषायमलवर्जितः सुविशुद्धः। चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्यः । अर्थ-केवल ज्ञानरूप एक क्षायिकभावके होने पर अर्हन्तदेव मद राग द्वेष से रहित कषाय और मलसे वर्जित शान्तिमूर्ति और मनके व्यापार से रहित होते हैं। सम्मइ दंसण पस्सइ जाणदि णाणण दव्वपज्जाया । सम्मत्तगुणविसुद्धो भावोअरहस्सणायव्वो ॥ ४ ॥ सम्यग्दर्शनेन पश्यति, जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वगुण विशुद्धः भावः अर्हतः ज्ञातव्यः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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