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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) भिन्न भिन्न रूप अने वेषने धारण करी आ जीव भिन्न भिन्न चेष्टा करतो भटक्या करे छे. माटे हे आत्मा ! हवे चेत, तें कर्मने आधीन थइ आ संसाररूपी नाटकमां घणा रूप वेष अने चेष्टाओ करी, पण हजु सुधी तारी सिद्धि थइ नहीं. तो हवे तारी गाढ निद्रामांथी जागृत था, अने जे क्रूरकर्मो तने नचावी रह्याछे तेओनो क्षय करवाने कर्मरहित श्रीवीतरागनुं रटन कर ॥ ६०॥ ★ नरपसु वेअणाओ, अणोवमाओ असायबहुलाओ । रे जीव ! तर पत्ता, अनंतखुत्तो बहुविहाओ ॥ ६१॥ हे जीव ! तें साते नरकोमां, जेनी उपमा नथी एवी दुःखथी भरपूर घणा प्रकारनी वेदनाओ अनन्ती वार भोगवी, तो पण हजु सुधी तारी शुद्धि ठेकाणे आवी नहीं !. माटे हे मन्दमते ! हवे पाप करतां डर राख, कारण के ते पापनां फळ तारे ज भोगववां पडशे. ॥६२॥ देवत्ते मणुअत्ते, पराभिओगत्तणं उवगएणं । * नरकेषु वेदना, अनुपमा अशातबहुलाः । रे जीव ! त्वया प्राप्ता, अनन्तकृत्वो बहुविधाः ॥ ६१ ॥ + देवत्वे मनुजत्वे, पराभियोगत्वमुपगतेन । For Private And Personal Use Only
SR No.020692
Book TitleSartham Bhavvairagya Shatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA M and Company
PublisherA M and Company
Publication Year1918
Total Pages75
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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