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ततो तिरितं ततो पच्छा अहे, अहोलोगे णं दुरभिगमे पन्नत्ते समणाउसो । सू० २१३
मूलार्थः-त्रण प्रकारे पुद्गलो(परमाणु विगैरे)नो प्रतिघात( गतिनी स्खलना ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ परमाणुपुद्गल, वीजा परमाणुपुद्गलने पामीने-अथडाईने गतिनी स्खलना थाय. (जम पाषाणने फेंकतां थकां बीजा पाषाण साथे अथडाईने ते पाछो पडे छ तेम) २ रुक्ष( लूखा )पणाथी परमाणुपुद्गल स्खलित थाय छे-अटके छ, ३ परमाणुपुद्गल लोकना अंते स्खलित थाय छे-अटके छे; कारण के त्यां धर्मास्तिकायनो अभाव छ (सू०२११)त्रण प्रकारे चक्षु कहेल छे, ते आ प्रमाणे-(चक्षु, द्रव्यथी नेत्र अने भावथी ज्ञानरूप समजबु.) १ एक चक्षु, २ चे चक्षु अने ३ त्रण चक्षु (अहिं चक्षु शब्दथी चक्षुवाळा समजवा ), छमस्थ मनुष्य (विशिष्ट ज्ञान-चक्षु रहित होवाथी) एक चक्षुवाळो छ, देव वे चक्षुधाळा छे (चक्षुरिंद्रिय अने अवधिज्ञान सहित होवाथी) अने उत्पन्न थयेल ज्ञानदर्शनने धरनार एवो तथारूपश्रमण-माहण त्रण चक्षुवाळो कहेवाय. (ते
आ प्रमाण-१ द्रव्यनेत्र, २ परमश्रुत अने ३ अवधिज्ञानरूप नेत्र) (सू० २१२) त्रण प्रकारे अभिसमागम (वस्तुने * यथार्थ स्वरूपे जाणवू ) कहेल छे, ते आ प्रमाणे ऊंचो, नीचो अने तिछो अभिसमागम छे अर्थात् ऊर्ध्व लोकादि प्रत्ये
जाणे छे. ज्यारे तथारूप (श्रुतचारित्र युक्त) श्रमण-माहणने अतिशेष परमावधिरूप ज्ञान अने दर्शन उत्पन्न थाय छे त्यारे ते साधु - पहेला ऊर्ध्वलोकने जाणे छे, त्यारपछी तिर्छा लोकने जाणे छे, त्यारबाद अधोलोकने जाणे छे. हे आयुष्मन् श्रमण ! ते
मुनिन अधोलोकनुं ज्ञान दुष्कर छे माटे अधोलोकने छेल्लु जाणे छे. (सू० २१३)
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