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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । दशम अध्याय ॥ पान ७८८ ॥ विशुद्धि होय तब पाहतें कहिये । बहुरि प्रत्येकबुद्ध तौ अपनी शक्तिहीकरि स्वयमेव ज्ञान पाव अरबोधित कहिये परके उपदेशतें पावै । तहां केई तौ प्रत्येकबुद्ध मोक्ष पावै हैं । केई बोधितबुद्ध मोक्ष पावै हैं । बहुतकरि प्रत्युत्पन्ननयअपेक्षा तो एक केवलज्ञानकरि सिद्ध हैं । बहुरि भूतग्रा की अपेक्षा केई तौ मति श्रुत इन दोऊ ज्ञानकरिही केवल उपजाय मोक्ष पावै हैं । केई मति श्रुति अवधि मनःपर्यय इन चारोंही ज्ञानकरि केवल उपजाय मोक्ष पावै हैं । बहुरि अवगा - हना उत्कृष्ट तौ पांचसौ पचीस धनुषकी काय जघन्य साढातीनि हाथकी काय किछु घाटि । बहुरि मध्यके नानाभेद, इनमेंतें एक अवगाहनातें सिद्धगति पावै है । तहां प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा देशोन लेणी ॥ बहुरि अंतर कहा सो कहै हैं ॥ तहां जे सिद्ध होय हैं तिनके अनंतर तौ जघन्य दोय समय हैं अर उत्कृष्ट आठ समय हैं । बहुरि अनंतर जघन्य तौ एकसमय अर उत्कृष्ट छह महीना है । बहुरि संख्या जघन्यकरि तो एकसमयही एकही सिद्धगति पावै । बहुरि उत्कृष्ट एकसमयमें एक्सौ आठ जीव मोक्ष पावैं हैं । बहुरि क्षेत्र आदिका भेदके भेदतें परस्पर संख्या लगाईये । तहां अल्पबहुत्व है, सोही कहिये हैं। हां प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा सिद्धक्षेत्रहीविर्षे सिद्ध भये । तहां अल्यबहुत्व नाहीं । बहुरि भूतग्राही - For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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