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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३४ ॥ है । इनकी एकान्तकल्पनाविषै दोष आदिसूत्र के व्याख्यानविषै कहै हैं । तथा ज्ञानशब्द के करणा दिसाधन का है हां जानना । जो निर्विषय ध्यान होय ताके भावसाधनपणा आदि नाहीं ब है | भाववानविना भावका असंभव है । कर्ताका अभाव होय तहां करणपणां बणै नाहीं । सर्वथा एकान्तविषै कारककी व्यवस्थाका असंभव है, सो पूर्वै कह्याही है ॥ बहुरि कोई कहै, कल्पनारोपितविषयविषैभी ध्यान कहिये है । सो ऐसा एकान्तकर कहनाभी कल्याणकारी नाहीं । जातैं निर्विषयध्यानभी कल्पितही ठहरे है । जैसें बालक कडावडीकल्पित चूल्हो आदिकरि कल्पित भोजनका नाम करै, तातें तृप्ति कैसें होय ? तैसें कल्पितध्यानतें ध्यानीकै तृप्ति नाहीं उपजै । तातें एकान्तवादीनिके ध्यानध्येय की व्यवस्था ठहरै नाहीं । जातें तिनकें जो तत मान्या है, ताका निर्णयका अयोग है । बहुरि ध्यानका कर्ता पुरुषही थपे नाहीं । जातैं पुरुषकूं सर्वथा नित्य कूटस्थ थापै ताके पूर्वापर स्वभावका त्याग ग्रहण तौ हैही नाहीं । ध्यानकी अवस्था कहां बणे ? तैसैंही क्षणिक मानै तिनके बणे नाहीं । बहुरि प्रधानके ध्यात मानें तो प्रधान तो जड है । जडके काहेका ध्यान ? बहुरि प्रधानका पर्यायरूप आत्मा यानी कहै तो सोभी जडही है । प्रधानतें जुदा तौ नाहीं । कल्पित कहै तौ अवस्तुही भया । जैसें बौद्धका For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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