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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३३ ॥ अंशरहित वस्तुकै तौ ध्यानध्येयपणा आवै नाहीं । कथंचित् अनेकरूप वस्तुकही तिसते अविरोधी ध्यान होय है। तिसते अर्थातरभत जो ध्येयवस्तु तिमविर्षे ध्यान प्रवते है। ऐसें आपलें जदाही जो द्रव्यपरमाणु तथा भावपरमाणुको आलंबे है । बहुरि ऐसा नाही, जो, द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु अर्थपर्याय नाहीं । जातें पुद्गलद्रव्यके पर्याय हैं । इहां परमाणुशब्दका ऐसा अर्थ जानना, जो, परम कहिये उत्कृष्ट जाका फेरि विभाग नाहीं ऐसा अंश, सो परमाणु है। तहां द्रव्यका परमाणु तौ पुद्गलका परमाणु है, तथा निश्चयकालका अणु है, इनतें छोटा और द्रव्य नाहीं॥ बहुरि भावपरमाणुके क्षेत्रअपेक्षा तौ एकप्रदेश है । व्यवहारकालका एकसमय है । अर भावअपेक्षा एक अविभागीप्रतिच्छेद है। तहां पुद्गलके गुणअपेक्षा तो स्पर्श रस गंध वर्ण इनका परिणमनका अंश लीजिये । जीवके गुणअपेक्षा ज्ञानका तथा कषायका एक अंश लीजिये । ऐसे द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु यथासंभव जानना। तातें ध्यानशब्द है सो भावसाधनभी है कर्तृसाधन भी है करणसाधनभी है । तहां ध्येयप्रति व्यापाररूप होय प्रवर्तना सो भावसाधन है । बहुरि आप स्वतंत्र ध्यावै सो ध्यान कर्तृसाधन है । बहुरि साधकतमकी विवक्षा करिये तब ज्ञानावरणवीयांतरायका विगमका विशेषकरि उपज्या सो जो शक्तिका विशेष ताका आत्मा ध्यावै सो करणसाधन For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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