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________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org ॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५७ ॥ तहां शरीरकी स्थितिका कारण जो आहार ताके अर्थि परघर जाता जो मुनि तिनकू दुष्टजन | देखिकरि दुष्ट वचन कहै, उपहास करे, अवज्ञा करे, ताडन करे, शरीरके घातआदि करै ऐसें क्रोध | उपजनेके कारण निकट होतेंभी चित्तमें क्रोधरूप कलुषता न उपजै, सो क्षमा है । बहुरि उत्तम. जाति कुल रूप विज्ञान ऐश्वर्य शास्त्रादिकका ज्ञान लाभ वीर्य एते गुण आपमें पाईये हैं, तिनका मद न होना, पैलें कोई अपमान किया होय तहां अभिमान न करना, सो मार्दव है । बहुरि | काय वचन मनके योगनिकी सरलता मायाचारसूं रहित सो आर्जव है । बहुरि लोभतें आत्माका | परिणाम मलिन रहै है ताका अभाव उत्कृष्टपणे होय, सो पवित्रता है, सोही शौच है ॥ इहां कोई कहै, लोभकी उत्कृष्ट निवृत्ति तो गुप्तिविभी है, तामें शौच आय गया, जुदा क्यों कह्या ? ताका समाधान, जो, गुप्तिविर्षे तो मनका चलनेका निषेध है । बहुरि तिस गुप्तिविर्षे असमर्थ होय ताकै परके वस्तु लेने का अभिप्रायका निषेध धर्मविर्षे जानना । बहुरि कहै, जो, | आकिंचन्यधर्मविर्षे आय जायगा शौच मति कहौ । ताकू कहिये, आकिंचन्यविर्षे ममत्वका अभाव प्रधानकरि कह्या है। अपने शरीरविर्षेभी संस्कार आदिका निषेध है । बहुरि शौचविर्षे च्यारिप्रकारके लोभकी निवृत्ति कही है । तहां लोभ च्यारिप्रकार कहा? सो कहिये है, जीवनेका लोभ | SAFASPARAGAPAINFORPORATOPARAPOPOARIOPANTRAPARINAPRI For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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