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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धियनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५६॥ | आपके पात्रमें भोजन लेय अन्य जायगा जाय खानेमें आशा लार लगी रहै है। बहुरि गृहस्थ अवस्थामें सुन्दर पात्रमें भोजन करै थे, अब जैसेंतैसेंमें खाय तब बडी दीनता आवै, ताते अपने हस्तरूप पात्रविषही आहार करना, यामें किछूभी दोष नाहीं उपजै है, स्वाधीन है, बाधारहित है । निराबाध देशविर्षे खडा रहकरि भोजनकू परखिकरि निश्चल होय भोजन करते किंचि. न्मात्रही दोष लागै नाहीं है, ऐसें जानना ॥ आगें तीसरा संवरका कारण जो धर्म, ताके भेद जाननेकू सूत्र कहै हैं॥ उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचसँयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥ याका अर्थ-- उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमआर्जव, उत्तमसत्य, उत्तमशौच, उत्तमसंयम उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिंचन्य, उत्तमब्रह्मचर्य ए दश धर्मके भेद हैं, तिन” संवर होय है, इहां शिष्य पूछे है, जो ये धर्म कौनअर्थि कहे हैं? ऐसें पूछे ताका प्रयोजन कहै हैं- पहले तो | | गुप्ति कही सो तो सर्वप्रवृत्तिके रोकने कू कही । पीछे तिस गुप्तिवि असमर्थ होय तब प्रवृत्ति करी | चाहिये । तातें भलेप्रकार यत्नतें प्रवर्तनेके अर्थि समिति कही। बहुरि यह दशप्रकारका धर्मका | || कथन है, सो, जे मुनि समितिविषे प्रवर्ते तिनकू प्रमादके परिहारके अर्थि कहा है, ऐसें जानना । | eativecitievertissertairertaipreritissertsoprotes For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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