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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४२०॥ अनंत, युक्त अनंत, अनंतानंत ऐसें । इहां प्रश्न, जो, लोक तौ असंख्यातप्रदेशी है, सो अनंतप्रदेशका स्कंध तामें कैसैं रहै ? ताका समाधान, जो, यह दोष इहां नाहीं । सूक्ष्मपरिणमन परमाणुनिका तथा अवगाहनशक्तिका योग” एकएक आकाशप्रदेशविर्षे अनंतानंत परमाणु तिष्ठे हैं। आकाशके प्रदेशनिविर्षे ऐसी अवगावनशक्ति है । तथा परमाणुनिमें ऐसीही सूक्ष्मपरिमाण शक्ति है । ताते यामै विरोध नाहीं । अल्प आधारविर्षे बहुतका अवस्थान देखिये है । जैसे एक चंपाकी कलीवि तिष्ठते सुगंधपरमाणु सूक्ष्मपरिणामतें संकुचे तिष्ठे हैं । बहुरि ते सुगंधपरमाणु फैलें तब सर्व दिशामें व्यापक होय, तैसें इहांभी जानना । सूक्ष्मपरिणामतें एक प्रदेशमें तिष्ठे परमाणु बादर परिणामें तब बहुतप्रदेशमें तिष्ठे ।। आगे, पहले सूत्रमें ऐसा कह्या, जो, पुद्गलनिके बहुप्रदेश हैं । तहां सामान्यपुद्गल कहनेमें परमाणुकोभी बहुप्रदेशका प्रसंग आवै है । ताके निषेधके अर्थि मूत्र कहैं हैं ॥नाणोः ॥११॥ याका अर्थ- परमाणुके बहु प्रदेश नाहीं हैं । इहां अणुकें प्रदेश नाही हैं । ऐसें वाक्यशेष लेना । इहां पू., जो, परमाणुक प्रदेशमात्र काहेरौं नाहीं । ताका उत्तर, जो, परमाणु एकप्रदेशमात्र ectivectoberalisraertibroresisextubreatirseriasises For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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