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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ४१९ ॥ इहां कहै , जो, ए तो कल्पना है, कल्पित अंश है । ताकू कहिये, जो, सर्वथा कल्पितही कहिये तो अनंतवस्तुका संबंधी जुदाजुदा न होय, जहां घटका आकाश कहिये तहां सर्व वस्तुका आकाश तेताही ठहरै । सो यह बडा दोष आवै । बहुरि एक क्षेत्रमें गऊ आदि तिष्ठे पीछे अन्यक्षेत्रमें जाय तब ऐसा कहिये है, जो, गऊ इहीतै अन्यक्षेत्रमें गया, सो यह न वणे । जो आकाश सर्वथा एक निरंशही होय तौ, अन्यक्षेत्र कैसें कहिये? कल्पनामात्रमें ऐसी अर्थक्रिया होय नाहीं कल्पित अमितें पाक आदि होय नाहीं ऐसा जानना ॥ _आगे कहे हैं, अमूर्तिक द्रव्यनिका प्रदेशनिका परिमाण कह्या, अब मूर्तिकद्रव्यका प्रदेशनिका परिमाण जान्या चाहिये, ताके जनानेकू सूत्र कहै हैं ॥ संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १०॥ ___याका अर्थ- पुद्गलद्रव्य हैं तिनकें प्रदेश संख्यातभी हैं, असंख्यातभी हैं, चकारतें अनंतभी | हैं । इहां चशदतें पहले सूत्रमें अनंतशब्द है सो लेणां । तहां केई पुद्गलद्रव्य तो दोयआदि अणुके स्कंध हैं , ते तो संख्यातप्रदेशी हैं । केई पुद्गल असंख्यातप्रदेशी स्कंध हैं। केई स्कंध अनंतप्रदेशी हैं। अनंतानंतके स्कंध अनंतसामान्य कहनेमें गर्भित हैं। जातें अंनतके तीनि भेदकरि कहे हैं। परीत INFASPARSNELOPARAGINPOXFOPANACAPKINNFSPREASOPARAFOPAN For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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