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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ उत्सूत्रतिरस्कारनामा-विचारपट: किंदिग्मोहमिताः किमंधवधिराः किंयोगचूर्णीकृताः किंदैवोपहताः किमंगठगिताः किंचाग्रहावेशिताः । कृत्वा मूनि पदं श्रुतस्य यदमी दृष्टोरुदोषा अपि व्यावृत्तिं कुपथाज्जडा न दधतेऽसूयंति चैतत् कृते ॥७॥" श्रीसंघपट्ट श्रीजिनाज्ञातत्परयथार्थाभिधखरतरश्रीजिनवल्लभमूरिवचनात् ।। तिणि गीतार्थिई कांई असमंजस दीठउँतउ इम काउं ॥ तथा-केतलडं एक सूत्र विरुद्ध असमंजस दीसइ छइ ॥ गच्छे गच्छे पुण परस्पर विरुद्ध एक मानई एक न मानई । ते केटलाएक बोल लिखियेइ छइ । गीतार्थ कहइ तिम प्रमाण || पूछी २ करवउ ॥ छः ॥ छः ॥ श्रीः॥ १-तीर्थकर सउं गृहस्थनई जोडावउ मेलिवउ ।। २-गृहे वीर नेमि मल्लि पार्श्वपतिमा अपूजनीय कथनं ॥ ३-स्वस्वगच्छनिश्रानामलिखनेन परिग्रहणं प्रतिमायाः ॥४१०८ कूपोदक १०८ पात्री साधु कथन मीलनं ॥५-पतिमानां विवाह वधूपचार करणं । मीडहल जवाली मउली बंधनं ॥ ६-रात्रौ जिनगृहमध्ये प्रतिष्टाथै साधुनिवासः ॥ ७अस्नातसाधुभिः शलाकासंचारणाय स्पर्शकरणं । करे कंकणमुद्रिका परिधान, जवारक करणं, वेदिकायानवेष्टकाभिः कृतिः। स्वहस्तेन दर्भवेष्टितशलाकाभिः सचित्तजलावगाहनलोडनं॥ नवग्रहस्थापन, दिक्पालानां च ॥ स्वहस्तेन तिलकुट्टीक्द फूलादि विकिरणं, लांगलीफलसुखाशिकादीनां ग्रहणं, आधा For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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