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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३ शब्दों का उपयोग कहीं भी शब्दोंके व्यवहार में दृष्टिगोचर नहीं होता, अर्थात् वाचकतारूप शक्ति अथवा द्योतकतारूप शक्तिको ही स्वीकार करके विद्वान् शब्दोंका प्रयोग करते हैं, अन्यथा नहीं । ननु-यथासङ्केतं शब्दप्रवृत्तिदर्शनाद्युगपत्सदसत्त्वयोस्सङ्केतितश्शब्दस्तद्वाचकोऽस्तु, शतृशानचोर्द्वयोस्संकेतितसनितिसंज्ञाशब्दवत्; युगपञ्चन्द्रसूर्ययोस्संकेतितपुष्पवन्तादिपदवद्वा । इति चेन्न;-संकेतस्यापि वाच्यवाचकशक्त्यनुरोधेनैव प्रवृत्तेः । न हि वाच्यवाचकशक्त्यतिलं घनेन संकेतप्रवृत्तिर्दृष्टचरी । यथा - कर्तुरयसो दारुलेखने शक्तिर्न तथा वज्रलेखनेस्ति, यथा वा वज्रलेखने तस्याशक्तिर्न तथा दारुलेखने, यथा च दारुणः कर्मणोऽयसा लेख्यत्वे शक्तिर्न तथा वज्रस्यास्ति, यथा वा वज्रस्य तत्राशक्तिर्न तथा दारुणोपीति, निश्चयः । एवं शब्दस्यापि सकृदेकस्मिन्नेवार्थे प्रतिपादनशक्तिरनेकस्मिन्नर्थे पुनः प्रतिपादनाशक्तिः, तथा - एकस्यैवार्थस्यैकपदवाच्यता शक्तिर्न पुनरनेकस्यापीति निश्चयः । पुष्पवन्तादिशब्दानामपि क्रमेणार्थद्वयप्रतिपादन एव सामर्थ्यमिति न दोषः ॥ प्रश्न: :- संकेत के अनुसार ही शब्दोंकी प्रवृत्ति देखनेसे एक कालमें ही सत्त्व तथा असत्त्व इन दोनों अर्थोंमें अस्ति आदि शब्दका संकेत करनेसे दोनों ही अर्थोंका वाचक क्यों न अस्ति आदि शब्द हो ? जैसे व्याकरण शास्त्र में 'सन्' यह संज्ञा शतृ तथा शानच् इन दोनों प्रत्ययरूप अर्थमें संकेतित है, इसलिये धातुसे सन् संज्ञक प्रत्यय हो ऐसा कहने से शतृ और शानच् दोनों प्रत्ययों के होनेसे "भवन्" तथा एधमानः, इत्यादि प्रयोग सिद्ध होते हैं और एक कालमें ही पुष्पवत् शब्दसे सूर्य तथा चन्द्रमाका बोध होता है, यदि ऐसा न हो तो पुष्पवन्तौ ऐसा कहनेसे एक कालमें ही सूर्य्य चन्द्रमाका ज्ञान कैसे हो ? | ऐसी शंका नहीं कर सकते, क्योंकि संकेत कियेहुये शब्दों को भी वाच्य बोचक शक्तिके अनुसार ही प्रवृत्ति होती है, कहीं भी वाच्य वाचक शक्तिका उल्लंघन करके संकेतकी प्रवृत्ति दृष्टि गोचर नहीं होती । जैसे लोहरूप कर्ताकी काष्ठके छेदन भेदन आदि कार्य्यमें शक्ति है ऐसी वज्रके छेदन भेदन आदिमें नहीं है, और जैसे वज्रके छेदन भेदन तथा लेखनमें शक्तिका अभाव है ऐसे ही काष्ठके छेदन भेदनादिमें शक्तिका अभाव नहीं है, और जैसे काष्ठरूप कर्म में यह शक्ति है कि लोहेसे खुद जाना वा छेदित होना ऐसी वज्ररूप कर्म्ममें नहीं है कि लोहेसे छिन्न भिन्न वा लिखित हो यह निश्चय है । इसी प्रकार शब्दमें भी एक कालमें एक ही अर्थकी कथनी शक्ति है १ इस शब्द से यह अर्थ बोधित करना चाहिये इस प्रकारका अनादि कालका ईश्वरीय अथवा मानवीय संकेत ( इसारा ). २ जो शब्द जिस अर्थमें जिन २ शास्त्रकी परिभाषाके अनुसार संकेतित है. उस संकेत किये हुये अर्थ में ही ( उस संकेत किये अर्थको ही कहने में ) उस शब्दकी वाचकता शक्ति है न कि अन्य अर्थ में. ३ लिखाजाय, संसारके पदार्थों में भी जहां जैसी शक्ति प्रकृतिके नियमसे स्थिर है उसीके अनुसार व्यवहार होता है. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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