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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहीं है संपूर्ण शब्द एक कालमें प्रधानतासे एक ही पदार्थको अपना विषय करके कहते हैं इसलिये एक पदार्थकी शक्ति एक ही पदार्थ विषय करनेवाली सिद्ध होती है । जैसे अस्ति यह पद सत्तारूप अर्थको ही कहता है, न कि असत्त्वरूप अर्थको ऐसे ही नास्ति यह पद भी असत्त्वरूप अर्थको ही बोधित करता है न कि सत्तारूप अर्थको । यदि अस्ति आदिमेंसे एक ही पद सत्ता तथा असत्ता दोनों अर्थोंका वाचक हो तो इन अस्ति और नास्ति दोनों पदोंमेंसे एकका प्रयोग न करना चाहिये क्योंकि जब एक ही पदसे सत्त्व और असत्त्व दोनों अर्थ कहेजाते हैं तब दोनों पदकी क्या आवश्यकता है । इससे यह वार्ता सिद्ध होगई कि एक शब्द वा पद एक कालमें प्रधानतासे एक ही अर्थको कह सकता है, न कि दो वा उससे अधिक । ननु-सर्वेषां पदानामेकार्थत्वनियमे नानार्थकपदोच्छेदापत्तिः, इति चेन्न,-गवादिपदस्यापि स्वर्गाद्यनेकार्थविषयतया प्रसिद्धस्य तत्त्वतोऽनेकत्वात् , सादृश्योपचारादेव तस्यैकत्वेन व्यवहरणात् । अन्यथा-सकलार्थस्याप्येकशब्दवाच्यत्वापत्तेरर्थभेदेनानेकशब्दप्रयोगवैफल्यात् । यथैव हि समभिरूढनयापेक्षया शब्दभेदावोऽर्थभेदस्तथाऽर्थभेदादपि शब्दभेदस्सिद्ध एव । अन्यथा वाच्यवाचकनियमव्यवहारविलोपात् । प्रश्नः-संपूर्ण पद एक ही अर्थके वाचक होते हैं । न कि अनेक अर्थके यदि ऐसा नियम मानोगे तो नाना अर्थके वाचक जो शब्द हैं उनका उच्छेद ही होजायगा। ऐसी शङ्का नहीं कर सकते हैं। क्योंकि गो आदि शब्द जो पशु पृथिवी किरण तथा स्वर्ग आदि अर्थके वाचकरूपसे प्रसिद्ध हैं, वे भी यथार्थमें अनेक ही हैं किन्तु एक प्रकारके उच्चारण आदि धर्मोकी समानतासे उनमें ऐकत्वका व्यवहार लोकमें है, यदि ऐसा न मानो तो संपूर्ण एक ही शब्दके वाच्य होनेसे अर्थ भेद मानकर जो अनेक शब्दका प्रयोग किया जाता है यह व्यर्थ होजायगा । क्योंकि समभिरूढ नयकी अपेक्षा जैसे शक इन्द्र पुरन्दर आदि शब्दभेदसे अर्थका भी भेद अवश्य माना गया है। ऐसे ही अर्थके भेदसे शब्दभेद भी सिद्ध ही है । ऐसा न माननेसे अर्थात् अर्थके भेद होनेपर भी शब्दका भेद न माननेसे वाच्य वाचक जो नियम है उसका लोप हो जायगा । १ भावार्थ यह है कि (सैन्धवमानय) नमक वा घोडा ला, यहां सैन्धव शब्द एक ही लवण वा घोडेरूप अर्थका वाचक है । भोजन समयमें लवण और गमन समयमें अश्वका वाचक है। न कि लवण और घोडे दोनोंका । यदि वकाको दोनोंकी जरूरत होती तो (सैन्धवलवणे आनय ) लवण तथा अश्व दोनों ला ऐसा कहता । इसलिये (सकृदुचरितः शब्द एकमेवार्थ गमयति) इस न्यायसे (सैन्धवमानय) इत्यादिमें सैन्धवादि शब्द एक ही अर्थके वाचक होते हैं. २ यद्यपि गो शब्द एक ही है तथापि “प्रत्युच्चारणं शब्दा भिद्यन्ते" ॥ प्रतिवारके उच्चारणमें शब्दका भेद होता है इस पक्षको लेकर शब्दका भेद माना है और वही गकार तथा ओकार पुनः उच्चारण किया है इस उच्चारण सादृश्यको लेकर एकता अथवा अभेद है. '३ अभिधेय अर्थात् प्रतिपाद्य पदार्थ । शब्द तथा अर्थमें. ४ वाच्यवाचकभाव संबन्ध है उसमें शब्द तो वाचक (कहनेवाला) और वाच्य (जो कहा जाय ) अर्थ होता है जैसे गो-गरओ-गो यह ग् तथा ओ वाचक है For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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