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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृह्णात्येव' ज्ञान किसी न किसी अर्थको ग्रहण करता ही है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञानत्व धर्मके समान अधिकरणमें रहनेवाले अत्यन्ताभावका अप्रतियोगी अर्थग्राहकत्वरूप धात्वर्थका बोध होता है। ज्ञानमें जब अर्थग्राहकता है तब उसमें अर्थग्राहकत्वका अत्यन्ताभाव नहीं रह सकता इसलिये अर्थग्राहकत्व उस अत्यन्ताभावका अप्रतियोगी हुआ । यदि वहां भी अत्यन्तायोगव्यवच्छेदरूप अर्थका बोधक ही एवकार मानोगे तब 'ज्ञानमर्थ गृह्णाति एव' इसीके सदृश 'ज्ञानं रजतं गृह्णाति एव' ज्ञान चांदीको ग्रहण करता ही है ऐसा भी प्रयोग हो जायगा. यद्यपि सब ज्ञानोंमें रजतेकी ग्राहकताका अभाव है क्योंकि सब ज्ञान चांदीको नहीं ग्रहण करते तथापि कोई एक चांदीको भी ग्रहण करता है इस हेतुसे 'ज्ञानं रजतं गृह्णाति एवं' इस उदाहरणमें अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधक एवकारके प्रयोगमें कोई बाधा न होगी तो जैसे वहां अयोगव्यवच्छेदरूप अर्थका बोधक क्रियासङ्गत भी एवकार है वैसा ही यहां भी क्रिया अन्वित होनेपर भी एवकार अयोगव्यवच्छेदबोधक ही है 'स्यादस्ति एव घटः' कथंचित् घट है ई है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक घटत्वरूप धर्मके अधिकरणरूप घटमें रहनेवाले अत्यन्ताभावका अप्रतियोगित्वरूप जो एवकारका अर्थ है. उसका अस् धातुके अस्तित्वरूप अर्थमें अन्वय होनेसे घटत्वका जो अधिकरण उसी अधिकरणमें रहनेवाले अत्यन्ताभावका अप्रतियोगी जो अस्तित्व तादृश अस्तित्ववान् अर्थात् अस्तित्वसहित घट ऐसा इस वाक्यका अर्थ हुआ. तात्पर्य यह है कि घटमें घटत्व धर्म है और 'अस्ति' इस शब्दसे अस्तिताका विधान भी घटत्व धर्मसे अवच्छिन्न घटको उद्देश्य करके करते हैं इसलिये उसीमें अस्तित्व भी है तो अस्तित्व रहते तो अस्तित्वका अत्यन्ताभाव घटमें नहीं कह सकते किन्तु पटादिका अत्यन्ताभाव घटमें है उसका प्रतियोगी पटादि पदार्थ हुवे, अप्रतियोगी अस्तित्व इसलिये उद्देश्यतावच्छेदक घटत्वके समानाधिकरणमें रहनेवाले अत्यन्ताभावका अप्रतियोगी जो अस्तित्व उस अस्तित्वसे युक्त घट ऐसा अर्थ इस 'स्यादस्त्येव घटः' वाक्यका हुआ. ___ अथ-घटत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभाव इत्युक्तेऽस्तित्वात्यन्ताभावोऽपि भवितुमर्हति, अस्तित्वात्यन्ताभावस्य नास्तित्वस्य घटे सत्त्वात् ; तादृशाभावाप्रतियोगित्वं चास्तित्वे बाधितम् , इति निरुक्तवाक्येनास्तित्वाभावस्य नास्तित्वस्य घटे निषेधः प्राप्नोतीति चेत् ।-उच्यते, प्रतियोगिव्यधिकरणाभावाप्रतियोगित्वमेवकारार्थः, तादृशाभावे-उद्देश्यतावच्छेदकसामानाधिकरण्यं चोद्देश्यबोधकपदसमभिव्याहारलभ्यम् । शङ्खः पाण्डुर एवेत्यादौ प्रतियोगिव्यधिकरणाभावाप्रतियोगित्वरूपैवकारार्थंकदेशेऽभावे शङ्खत्वसामानाधिकरण्यस्य शङ्खपदसमभिव्याहारलभ्यत्वात् । एवं च प्रकृतेऽप्येवकारार्थः प्रतियोगिव्यधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् , अभावे घटत्वसामानाधिकरण्यन्तु घटपदसमभिव्याहारलभ्यम् । तथा च घटत्वसमानाधि१ अर्थ ग्रहण करानेकी शक्ति. २ चांदी. ३ जानता. For Private And Personal use only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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