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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दोपचारः इति । अभेदवृत्त्यभेदोपचारयोरनाश्रयणे-एकधर्मात्मकवस्तुविषयबोधजनकं वाक्यं विकलादेशः इति प्राहुः ॥ __इसका तात्पर्य यह है कि जब अभिन्न वस्तु एकगुणरूपसे कहा जाता है तब गुण रूपके विना अर्थात् अन्य शेष धर्मोंके विना वस्तुके विशेष ज्ञानका असंभव होनेसे वह एक धर्मद्वारा कथन ही सकलादेश है । क्योंकि एक जीव अस्तित्व आदि सब धर्मों में एक धर्मखरूपसे अभेद वृत्तिसे अथवा अभेदके उपचारसे अंशरहित है, अतः समस्तरूपसे ही वह कथन करनेको अभीष्ट है । क्योंकि विभागके निमित्तभूत उस जीवके प्रतियोगी अन्य धर्म अविवक्षित हैं कदाचित् यह कहो कि, कैसे अभेद सम्बन्धसे वस्तुकी वृत्ति है ? और किस प्रकार अभेदका उपचार है ? तो इसका उत्तर यह है कि,-द्रव्यार्थतारूपसे आश्रय करनेसे द्रव्यत्वरूपसे अभेद होनेके कारण अभेद सम्बन्धसे द्रव्यत्वकी वृत्ति है । क्योंकि द्रव्यत्व धर्मसे सब द्रव्योंका अभेद है और पर्यायार्थतारूप अर्थात् घटत्व कपालत्वादिरूपका तथा जीवमें देवत्व मनुष्यत्वादि वा मिथ्यात्व सम्यक्त्वादि धर्मका आश्रयण करनेसे परस्पर भेद होनेपर भी द्रव्यत्वरूप एकत्वके अध्यारोपसे अभेदका भी उपचार है । और अभेदवृत्ति तथा अभेदोपचार इन दोनोंका आश्रय न करके एक धर्मात्मक वस्तुविषयक बोधजनक जो वाक्य है, वह विकलादेश है ॥ तत्र धर्मान्तराप्रतिषेधकत्वे सति विधिविषयकबोधजनकवाक्यं प्रथमो भङ्गः । स च स्यादस्त्येव घट इति वचनरूपः । धर्मान्तराप्रतिषेधकत्वे सति प्रतिषेधविषयकबोधजनकवाक्यं द्वितीयो भङ्गः । स च स्यान्नास्त्येव घट इत्याकारः तत्र प्रथमवाक्ये घटशब्दो द्रव्यवाचकः, विशेष्यत्वात् । अस्तीति गुणवाचकः, विशेषणत्वात् । इन सेप्तभङ्गोंमेंसे अन्य धर्मोंका निषेध न करके विधि विषयक अर्थात् सत्ता विषयमें बोध उत्पन्न करानेवाला वाक्य प्रथम 'स्यादस्त्येव घटः' कथञ्चित् घट है, भङ्ग है । उस भङ्गका खरूप 'स्यादस्त्येव घटः कथञ्चित् घट है इत्यादि वचनरूप है और इसी प्रकार अन्य धर्मका निषेध न करके निषेध विषयक बोधजनक वाक्य द्वितीय भङ्ग है। और 'स्यानास्त्येव घटः' कथञ्चित् घट नहीं है इत्यादि वचनरूप द्वितीय भङ्गका आकार है, उसमें विशेष्य होनेके कारण प्रथम वाक्यमें घट शब्द द्रव्यवाचक है और विशेषण होनेसे 'अस्ति' यह शब्द गुणवाचक है । ननु-घटस्य रूपम् । फलस्य माधुर्यम् । पुष्पस्य गन्धः । जलस्य शैत्यम् । वायोः स्पर्शः । इत्यादौ गुणस्यापि विशेष्यत्वं दृश्यते; द्रव्यस्यापि विशेषणत्वं; इति चेत्सत्यम् । तथापि-समानाधिकरणवाक्ये-नीलमुत्पलं, शुक्लः पटः, सुरभिर्वायुः, इत्यादौ द्रव्यवाचकस्यैव विशेष्यत्वं गुणवाचकस्यैव विशेषणत्वमिति नियमात् ॥ १ विशेषणीभूत. २ कहनेको इष्ट, ३ अभिन्न धर्मसे स्थिति. ४ मानने. ५ सात. ६ असत्त्व विषयक. ७ भङ्ग. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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