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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्यादस्ति नास्ति च घटः कथंचित् घट है और कथंचित् नहीं है ॥३॥ स्यादवक्तव्यो घटः कथंचित् घट अवक्तव्य है ॥ ४ ॥ स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटः कथंचित् घट है और अवक्तव्य है ॥ ५॥ स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घटः कथंचित् नहीं है तथा अवक्तव्य घट है ॥ ६ ॥ स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घटः कथंचित् है नहीं है इस रूपसे अवक्तव्य घट है॥७॥ इनही सप्तवाक्योंके समुदायका नाम सप्तभङ्गी है । तल्लक्षणन्तु प्रानिकप्रभज्ञानप्रयोज्यत्वे सति, एकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वम् । वर्त्तते चेदं लक्षणं दर्शितवाक्यसप्तके । तथाहि प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वं हि परम्परया प्राश्निकप्रश्नज्ञा जन्यत्वम् । तथा च प्राश्निकप्रश्नज्ञानेन प्रतिपादकस्य विवक्षा जायते, विवक्षया च वाक्यप्रयोग, इति प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वमुक्तसप्तवाक्यसमुदायस्याक्षतम् । एवं घटादिरूपैकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविध्यादिप्रकारको यो बोधः घटोऽस्तीत्यादिरूपो बोधः, तज्जनकत्वं च वर्तत इति । इस सप्तभङ्गीका लक्षण यह है कि-प्रश्नकर्ताके प्रश्नज्ञानका प्रयोज्य रहते, एक पदार्थ विशेष्यक अविरुद्ध विधिप्रतिषेधरूप नानाधर्मप्रकारक बोधजनक सप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायता । अर्थात् प्रश्नकर्ताके प्रश्नज्ञानका जो प्रयोज्य रहते एक किसी पदार्थको विशेष्य करके अर्थात् एक वस्तुमें परस्पर अविरुद्ध नाना धोका निश्चायक ज्ञानजनक सप्तवाक्योंमें रहनेवाला सप्तभङ्गी नय है । यह लक्षण पूर्वोक्त सप्तवाक्य समुदायमें है । इसका समन्वय इस प्रकार है । प्रश्नकर्ताके प्रश्नज्ञानकी प्रयोज्यता परंपरासे प्रश्नकर्ताके प्रश्नज्ञानकी जन्यतारूप होगी । अर्थात् प्रश्नकर्ताका प्रश्न तौ जनक और प्रश्नज्ञान उसका जन्य होगा। क्योंकि प्रश्नकर्ताके प्रश्नज्ञानसे ही प्रतिपादन करनेवालेकी विवॆक्षा होती है और विवेक्षासे वाक्य प्रयोग होता है । इस रीतिसे प्रानिक प्रश्नज्ञान प्रयोज्यता पूर्वोक्त इस वाक्यसमूहकी पूर्णरूपसे है और इसीप्रकार घट आदि एक पदार्थ विशेष्यक परस्पराविरुद्ध विधिनिषेधरूप नानाधर्म प्रकारक 'स्यादस्ति घटः स्यान्नास्ति घटः किसी विवक्षासे घट है किसी विवक्षासे नहीं है ऐसा जो ज्ञान है उसका जनक पूर्वोक्त सप्तभङ्गी नय है ॥ तदिदमाहुरभियुक्ताः-"प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी” इति।। इस विषयमें आचार्योंने ऐसा कहा है। प्रश्नके वशसे एक किसी घटादि वस्तुमें अविरोधरूपसे विधि तथा प्रतिषेधकी जो कल्पना है उसको सप्तभङ्गी नय कहते हैं । __ अस्यायमर्थः-'प्रश्नवशात्' इत्यत्र पञ्चम्याः प्रयोज्यत्वमर्थः । विधिप्रतिषेधकल्पनेत्यस्य विधिप्रतिषेधप्रकारकबोधजनिकेत्यर्थः । अविरोधेनेति तृतीयार्थो वैशिष्टयं विधिप्रतिषेधयोरन्वेति । १ किसी अपेक्षासे. २ अस्ति नास्ति आदि रूप. ३ उत्तरदाताकी. ४ कहनेकी इच्छा. ५ कथनकी इच्छासे. ६ किसी विवक्षासे घट है किसी विवक्षासे नहीं हैं. ७ प्रश्नाऽनुसार. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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