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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाराणसी निवासी । विषय-अर्वाचीन पद्धति से काव्यतत्त्व की चर्चा। काव्यादर्श - ले. आचार्य दंडी। ई. 7 वीं शती। अलंकारसंप्रदाय व रीति संप्रदाय का यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें कुल मिला कर 660 श्लोक हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्यलक्षण, काव्यभेद गद्य पद्य मिश्र, आख्यायिका व कथा, वैदर्भी व गौडी मार्ग, दस गुणों का विवेचन, अनुप्रास- वर्णन तथा कवि के 3 गुण- प्रतिभा, श्रुति व अभियोग का निरूपण है। द्वितीय परिच्छेद में अलंकारों के लक्षण उदाहरणसहित प्रस्तुत किये गये हैं। वर्णित अलंकार हैं : स्वभावोक्ति, उपमा, रूपक, दीपक आवृत्ति, आक्षेप, अर्थातरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, । उत्प्रेक्षा, हेतु, सूक्ष्म, लेश, यथासंख्य, प्रेयान्, रसवत्, ऊर्जस्वि, पर्यायोक्त, समाहित, उदात्त, अपहृति, श्लेष, विशेषोक्ति, तुल्ययोगिता विरोध, अप्रस्तुतप्रशंसा, व्याजोक्ति, निदर्शना, सहोक्ति, परिवृत्ति आशीः संकीर्ण व भाविक। तृतीय परिच्छेद में यमक व उसके 315 प्रकारों का निर्देश, चित्रबंध गोमूत्रिका, सर्वतोभद्र व वर्ण-नियम, 16 प्रकार की प्रहेलिका व 10 प्रकार के दोषों का विवेचन है। ___काव्यादर्श पर दो प्रसिद्ध प्राचीन टीकाएं हैं। प्रथम टीका के लेखक हैं तरुण वाचस्पति, तथा द्वितीय टीका का नाम "हृदयंगमा' है जो किसी अज्ञात लेखक की कृति है। मद्रास से प्रकाशित प्रो. रंगाचार्य के (1910 ई.) संस्करण में काव्यादर्श के 4 परिच्छेद मिलते हैं। इसमें तृतीय परिच्छेद के ही दो विभाग कर दिये गये हैं। इसके चतुर्थ परिच्छेद में दोष विवेचन है। काव्यादर्श के 3 हिन्दी अनुवाद हुए हैं। ब्रजरत्नदासकृत हिन्दी अनुवाद, रामचंद्र मिश्र कृत हिन्दी व संस्कृत टीका और श्री रणवीरसिंह का हिन्दी अनुवाद। इस पर रचित अन्य अनेक टीकाओं के भी विवरण प्राप्त होते हैं : 1) मार्जन टीकाटीकाकार म.म. हरिनाथ। 2) काव्यतत्त्वविवेककौमुदी ले.कृष्णकिंकर तर्कवागीश। 3) "श्रुतानुपालिनी" टीका, लेखकवादिघंघालदेव। 4) "वैमल्यविधायिनी' टीका- प्रणेता जगन्नाथ - पुत्र मल्लिनाथ। 5) विजयानंदकृत व्याख्या 6) यामुनकृत व्याख्या 7) रत्नश्री संज्ञक टीका, इसके लेखक रत्नज्ञान नामक एक लंकानिवासी विद्वान थे। यह टीका मिथिला रिसर्च इन्स्टीट्यूट, दरभंगा से अनंतलाल ठाकुर द्वारा 1957 ई. में संपादित व प्रकाशित हो चुकी है। 8) बोथलिंक द्वारा जर्मन अनुवाद, 1890 ई. में प्रकाशित। 9) एस.के. बेलवलकर और एन.बी. रेड्डी 10) प्रेमचंद्र 11) जीवानन्द 12) विश्वेश्वर पुत्र हरिनाथ, 13) नरसिंह भागीरथ-विजयानन्द 18) विश्वनाथ 14) त्रिभुवनचंद्र 15) त्रिसरनत भीम, 16) कृष्णकिंकर तर्कवागीश कृत काव्यादर्शविवृति । 17) जगन्नाथपुत्र मल्लिनाथ । काव्यानुशासनम् - ले. वाग्भट (द्वितीय) है। अपने इस सूत्रमय ग्रंथ पर स्वयं वाग्भट ने ही "अलंकार-तिल वृत्ति लिखी है। प्रस्तुत ग्रंथ 5 अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में काव्य के प्रयोजन, हेतु, कविसमय एवं काव्यभेदों का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में 16 प्रकार के पददोष, 14 प्रकार के काव्य एवं अर्थ दोष वर्णित हैं। तृतीय अध्याय में 63 अर्थालंकार तथा चतुर्थ में 6 शब्दालंकारों का विवेचन है। पंचम अध्याय में 9 रस, नायक-नायिका-भेद और उनके प्रेम की 10 अवस्थाओं तथा दोषों का वर्णन है। काव्याम्बुधि - सन 1793 में पद्मराज पंडित के सम्पादकत्व में वेंगूल नगर से इस पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसका वार्षिक मूल्य तीन रु. था। काव्यालंकार - ले. भामह । काव्यशास्त्र का स्वतंत्र रूप से विचार करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। यह ग्रंथ 6 परिच्छेदों में विभक्त है। श्लोकों की संख्या 400 के लगभग है। इसमें काव्य-शरीर, अलंकार, दोष, न्याय-निर्णय और शब्द-शुद्धि इन 5 विषयों का वर्णन है। प्रथम परिच्छेद में काव्यप्रयोजन, कवित्व-प्रशंसा, प्रतिभा का स्वरूप, कवि ने ज्ञातव्य विषय, काव्य का स्वरूप तथा भेद, काव्य-दोष एवं दोष-परिहार का वर्णन है। इसमें 59 श्लोक हैं। द्वितीय परिच्छेद में गुण शब्दालंकार व अर्थालंकार का विवेचन है। तृतीय परिच्छेद में भी अर्थालंकार निरूपित हैं और चतुर्थ परिच्छेद में व्याकरण विषयक अशुद्धियों का वर्णन है। इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद आ.देवेन्द्रनाथ शर्मा ने किया है जो राष्ट्रभाषा-परिषद, पटना के द्वारा प्रकाशित है। काव्यालंकार - ले. रुद्रट। काश्मीरवासी। यह ग्रंथ 16 अध्यायों में विभक्त है। इनमें 495 कारिकाएं व 253 उदाहरण हैं। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम अध्याय में काव्य-प्रयोजन, काव्य-हेतु व कवि-महिमा का वर्णन है। द्वितीय अध्याय के विषय हैं : काव्यलक्षण, शब्द-प्रकार (5 प्रकार के शब्द) वृत्ति के आधारपर त्रिविध रीतियां, वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष व चित्रालंकार का निरूपण, वैदर्भी, पांचाली, लाटी व गौडी रीतियों का वर्णन, काव्य में प्रयुक्त 6 भाषाएं, प्राकृत, संस्कृत, मागध, पैशाची, शौरसेनी व अपभ्रंश। अनुप्रास की 5 वृत्तियांमधुरा, ललिता, प्रौढ, पुरुषा व भद्रा का विवेचन। तृतीय अध्याय में यमक का विवेचन 58 श्लोकों में किया गया है। चतुर्थ व पंचम अध्याय में क्रमशः श्लेष और चित्रालंकार का वर्णन है। षष्ठ अध्याय में दोषनिरूपण है। सप्तम अध्याय में अर्थ का लक्षण, वाचक शब्द के भेद व 23 अर्थालंकारों का विवेचन है। विवेचित अलंकारों के नाम इस प्रकार हैं: सहोक्ति, समुच्चय, जाति, यथासंख्य, भाव, पर्याय, विषम, अनुमान, दीपक, परिकर, परिवृत्ति, परिसंख्या, हेतु कारणमाला, व्यतिरेक, अन्योन्य, उत्तर, सार, सूक्ष्म, लेश, अवसर, 'मीलित व एकावली। अष्टम अध्याय में औपम्यमूलक उपमा, उत्प्रेक्षा, संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खात 169 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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