SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसवत्ता स्वीकार करने पर भी राजशेखर का यह अर्थविषयक तथा कविविषयक दृष्टिकोण अवश्य ही स्वतंत्र है। इतना सूक्ष्म विचार अन्यत्र नहीं दिखाई देता। दशम अध्याय "कविचर्या एवं राजचर्या' में कौन से विषय काव्य के लिये आवश्यक हैं जिनका उनसे श्रद्धापूर्वक परिशीलन करना चाहिये यह कहा है। उसका आचरण तथा दैनिक चर्या किस प्रकार हो, उसका निवास कैसा हो, आदि विचार किया गया है। कवि के निवास तथा व्यवहार आदि का यह चित्र बडा ही आकर्षक एवं प्रभावशाली है। उसकी लेखनसामग्री में दिवालों तक का अन्तर्भाव है। कवि के काव्य के विषय में समाज में किस प्रकार की अनेक प्रतिक्रियाए होती है, तथा कवि को अपनी मनोवृत्ती किस प्रकार रखनी चाहिये इसका भी बडा ही रोचक वर्णन किया है। स्त्रियां भी कवि हो सकती है। कवित्व आत्मा का संस्कार है। सिद्ध काव्यग्रंथ की रक्षा के उपाय तथा उसकी 5 महापदाएं भी बतलाई है। कवि तया काव्य की सुस्थिती के लिये राजा का क्या कर्तव्य है, इसका भी विचार किया गया है। राजसभा में अन्य कलाविदों के साथ कवि का स्थान भी निश्चित किया है। काव्यपाठ का आयोजन करके कवियों का सत्कार करने को कहा है। अध्याय एकादश से त्रयोदश तक शब्दार्थाहरणोपायों की चर्चा की गई है। इस विषय पर राजशेखर के पूर्ववर्ती भामह उक्तानुवादी का उल्लेख करके तथा प्रायः समकालीन आनंदवर्धन ने काव्यसाम्य का बिम्बचित्र देहवत् मानकर, अपने विचार प्रदर्शित किये है। किन्तु वे संक्षिप्त है। राजशेखर ने शब्दाहरण का तथा अर्धाहरण का विस्तार से निरुपण करने उनके युक्तायुक्तत्व का विवेचन किया है। इससे कवियों को उत्तम मार्गदर्शन हुआ है। चतुदर्श से सोलह अध्यायों तक कवि-समयों का विवेचन आता है। इस विषय की ओर पूर्ववर्ती अलंकार शास्त्रियों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। राजशेखर इनका स्वतंत्र रूप से विचार करते हैं। इन कविसमयों के जातिद्रव्यक्रिया-समय गुणसमय तथा स्वर्गपातालीय कविसमय नामक तीन प्रकार करके उनका सविस्तर परिचय देते हैं। सतरहवें तथा अठारहवें अध्यायों में देशकाल-विभाग का विवेचन आता है। कवि को देश तथा काल का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है। अविशेषरूप से देश और संसार एक ही हैं और विशेष विवक्षा से दो, तीन, सात, चौदह, अथवा इकीस संख्या में भी विभक्त हैं, यह मत राजशेखर ने व्यक्त किया है। पश्चात् समस्त भुवनों का उनकी विशेषताओं के साथ वर्णन किया है जिस पर पौराणिकता का प्रभाव पड़ा दिखाई देता है। इन भौगोलिक तत्त्वों की विविध प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। यह प्रकरण ज्ञानकोष सा बन गया है। राजशेखर अन्त में कहते हैं "इत्थं देशविभागो मुद्रामात्रेण सूचितः सुधियाम्। यस्तु जिगमिषत्यधिकं पश्यतु मद्भुवनकोषमसौ।।" किन्तु यह "भुवनकोष" अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। देशविभाग के पश्चात् काष्ठा, निमेष, मुहूर्त आदि के रूप मे कालविभाग भी किया है। ऋतुओं के वर्णन के साथ ही उस समय बहने वाली वायुओं का वर्णन किया है। विभिन्न ऋतुओं में फलने फुलने वाली वनस्पतियों का तथा पशुपक्षियों की अवस्था का वर्णन किया है। उपलब्ध काव्यमीमांसा ग्रंथ इसी अध्याय में समाप्त होता है। काव्यमीमांसा पर पं. मधुसूदन शास्त्री ने मधुसूदनी नामक विवृति लिखी है जो चौखम्बा विद्याभवन द्वारा प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त नारायण शास्त्री खिस्ते (वाराणसी) कृत टीका और दो हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हैं। काव्यरत्नम् - ले. विश्वेश्वर पाण्डे । काव्यरत्नाकर - ले. वेचाराम न्यायालंकार। ई. 18 वीं शती। विषय- काव्यशास्त्र। काव्यरत्नावली - ले. रामनाथ विद्यावाचस्पति । ई. 17 वीं शती। विषय- काव्यशास्त्र । काव्यरसायनम् - ले.समसन्दर्भ। काव्यलीला - ले. विश्वेश्वर पाण्डे । काव्यवाटिका - ले. विद्याधर शास्त्री। काव्यविलास - (1) ले. चिरंजीव शर्मा। (श. 18) भानुदत्त द्वारा प्रतिपादित "भाषा" रस का तथा वैष्णव कवियों द्वारा प्रणीत रसों का खण्डन । “चमत्कृति" तत्त्व को प्राधान्य दिया है। [2] (अपरनाम वृत्तरत्नावली) ले. रामदेव चिरंजीव। काव्यसंग्रह - ले. जीवानन्द विद्यासागर (शती 18) लेखक की संस्कृत पद्य रचनाएं सन 1847 में कलकत्ता से प्रकाशित हुईं। काव्यसत्यालोक - ले. डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के निदेशक। अजमेर के निवासी। यह ग्रंथ पाच उद्योतों में विभक्त हैं। उनके नाम हैं : सत्यनिरूपण, धर्मसूक्ष्मताधान, व्यापारयोग, भावयोग तथा काव्यलक्षणादिविवेचन। कुल कारिकाओंकी संख्या है- 701 संस्कृत के साहित्यशास्त्र को युगचेतना के स्तर तक लाकर पाश्यात्य साहित्यशास्त्र की आधुनिक धारा का उसमें विलय करने के उद्देश्य से डॉ. ब्रह्मानंद शर्मा ने यह रचना की है। काव्यसत्यालोक हिंदी अर्थ के साथ प्रकाशित हुआ है। वाराणसी के डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी ने भी अपने काव्यालंकारकारिका नामक ग्रंथ में साहित्य विषयक नवीन भावानाएं प्रकट करने का प्रयास किया है। काव्यसूत्रवृत्ति - ले. मुडुंबी नरसिंहाचार्य। काव्यसूत्रसंहिता - ले. प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज। वाराणसी के प्रा. लेले के मराठी भाष्य सहित प्रकाशित। प्रकाशक - विश्वसंत साहित्य प्रतिष्ठान, नागपुर-१। काव्यात्मसंशोधनम् - ले. म.म.मानवल्ली गंगाधरशास्त्री। 68 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy