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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाश में आने से यह निश्चित हुआ कि कातन्त्र व्याकरण काशकृत्स्र का संक्षेप है। यह व्याकरण महाभाष्य से प्राचीन है (समय - वि.पू.2000)। वर्तमान कातन्त्र व्याकरण शर्ववर्मा द्वारा संक्षिप्त हुआ है। (वि.पू. 400-500) शर्ववर्मा ने आख्यातान्त भाग की रचना की। कृदन्त भाग का लेखक कात्यायन है। यह कात्यायन कौन हैं इसका स्पष्ट ज्ञान नहीं है। कातन्त्र परिशिष्ट का कर्ता श्रीपतिदत्त था जिसने अपने भाग पर वृत्ति भी लिखी है। "कातन्त्रोत्तर" नामक ग्रंथ का लेखक विजयानन्द है। इसका प्रसार मध्य-रशिया तक हुआ था। कातन्त्रच्छन्दःप्रक्रिया - ले.- म.म. चन्द्रकान्त तर्कालंकार। ई. 19-20 वीं शती। वह वैदिक भाग का परिशिष्ट है जो प्राचीन व्याकरणों द्वारा कातन्त्र-प्रक्रिया के प्रतिपादन में छूट गया था। कातन्त्रधातुपाठ - कातन्त्र व्याकरण कालाप, कौमार आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है। इस व्याकरण का एक स्वतंत्र धातुपाठ है जिस पर दुर्गासिंह, शर्ववर्मा, आत्रेय, रमानाथ आदि वैयाकरणों ने वृत्तियां लिखी हैं। कातन्त्र पंजिका- ले. त्रिलोचनदास। यह दुर्गवृत्ति की बृहत् टीका बंगला अक्षरों में मुद्रित है। इसके अतिरिक्त एक शिष्यहित-न्यास नामक उग्रभूति द्वारा रचित टीका अप्राप्य है। अल्बेरूनी द्वारा इसका उल्लेख हुआ है। कातन्त्र- परिशिष्टम्- ले.- श्रीपतिदत्त । ई. 11 वीं शती। कातन्त्ररहस्यम् - ले.- रामदास चक्रवर्ती । कातन्त्ररूपमाला - ले.- भावसेन विद्य। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। कातन्त्रविस्तर - ले. वर्धमान । पृथ्वीधर ने इस पर एक टीका लिखी है। दुर्गवृत्ति पर काशिराज कृत लधुवृत्ति, हरिराम कृत चतुष्टयप्रदीप ये टीकाएं भी उल्लिखित हैं। कातन्त्र व्याकरण पर उमापति , जिनप्रभसूरि (कातन्त्रविभ्रम), जगद्धरभट्ट (बालबोधिनी) तथा पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर की टीकाएं उल्लिखित हैं। कातन्त्रविभ्रम पर चरित्रसिंह ने अवचूर्णी नामक टीका लिखी । बालबोधिनी पर राजानक शितिकण्ठ ने टीका लिखी है। में काफी शास्त्रार्थ हुआ करते थे। गुप्तकाल में बौद्धों के बीच कातंत्र व्याकरण का ही अधिक प्रचार था। विंटरनिट्झ के मतानुसार कांतत्र व्याकरण की रचना ई.स.के तीसरे शतक में हुई तथा बंगाल व काश्मीर में उसका व्यापक प्रचार हुआ। कात्यायन - (यजुर्वेद की लुप्त शाखा) - इस शाखा के कात्यायन श्रौतसूत्र और कातीय गृह्यसूत्र प्रसिद्ध हैं। पारस्कर गृह्यसूत्र से कातीय सूत्र कतिपय अंशों से विभिन्न हैं। कात्यायनकारिका - ले. कात्यायन । कात्यायन-गृह्यकारिका - ले. कात्यायन । विषय - धर्मशास्त्र । कात्यायन-गृह्यसूत्रम् - ले. कात्यायन । कात्यायन-प्रयोग - ले. कात्यायन । कात्यायन-वेदप्राप्ति- ले. कात्यायन । कात्यायन-शाखाभाष्यम् - ले. कात्यायन । कात्यायन-श्रौतसूत्रम् - शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र। इसके 26 अध्याय है, जिनमें शतपथ ब्राह्मण की क्रियाओं, सौत्रामणि, अश्वमेघ, पितृमेघ,सर्वमेघ, एकाह, अहीन, प्रायश्चित, प्रवर्दी आदि की चर्चा की गई है। कात्यायन-स्मृति - इस के रचयिता कात्यायन हैं जो वार्तिककार कात्यायन से भिन्न सिद्ध होते हैं। डॉ. पी.वी. काणे के अनुसार इनका समय ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी है। कात्यायन का धर्मशास्त्र विषयक अभी तक कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सका परंतु विविध धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में इनके लगभग 900 श्लोक उद्धृत हैं। ___जीवानंदसंग्रह मे कात्यायनकृत 500 श्लोकों का ग्रंथ प्राप्त होता है जो 3 प्रपाठकों व 29 खंडों में विभक्त है। इसके श्लोक अनुष्टप् में है किन्तु कहीं कहीं उपेंद्रवज्रा का भी प्रयोग है। यही ग्रंथ "कर्मप्रदीप " या "कात्यायन-स्मृति" के नाम से विख्यात है। इसमें वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है :यज्ञोपवीत धारण करने की विधि, जल का छिडकना तथा जल से विविध अंगों का स्पर्श करना, प्रत्येक कार्य में गणेश व 14 मातृपूजा, कुश, श्राद्ध-विवरण, पूताग्नि-प्रतिष्ठा, अरणियों, नुव का विवरण प्राणायाम, वेदमंत्रपाठ, देवता तथा पितरों का श्राद्ध, दंतधावन एवं स्नान की विधि, संध्या, माध्याह्निक यज्ञ, श्राध्दकर्ता का विवरण, मरण के समय का अशौच-काल, पत्नी -कर्तव्य एवं नाना प्रकार के श्राद्ध। इस ग्रंथ के अनेक उदाहरण मिताक्षरा व अपरार्क ने भी दिये हैं। इस स्मृति के स्त्रीधन विषयक सिद्धान्त कानून के क्षेत्र में मान्यताप्राप्त हैं। कात्यायनी तन्त्रम् - शिव-गौरी संवाद रूप यह ग्रंथ 78 पटलों में है। श्लोकसंख्या- 588। इसमें कात्यायनी, महादुर्गा जगद्धात्री आदि देवताओं की उत्पत्ति, पूजा आदि विस्तार से वर्णित हैं। कात्यायनी शांति- ले. कात्यायन। विषय - धर्मशास्त्र । कातन्त्रवृत्ति (नामान्तर- दुर्ग, दुर्गम तथा दुर्गाक्रमा)- ले. दुर्गसिंह। यह कातन्त्र व्याकरण की सबसे प्राचीन उपलब्ध वृत्ति है। दुर्गसिंह ने निरुक्तवृत्ति भी लिखी है। समय ई. 7 वीं शती। इसके अतिरिक्त वररुचिविरचित कातन्त्रवत्ति तथा रविवर्मा विरचित बृहद्वृत्ति का भी उल्लेख है। कातन्त्रव्याकरण - एक व्याकरण ग्रंथ है। कातन्त्र का अर्थ है संक्षिप्त। इसे कालाप अथवा कौमार कहा जाता है। परंपरा के अनुसार कुमार कार्तिकेय ने शर्ववर्मा को इसके सूत्र बताये इसलिये इसका नाम कौमारव्याकरण पडा । कालाप संज्ञा कार्तिकेय के मोर से आयी, क्यों कि उस सूत्रोपदेश में मोर का भी अंग था। प्राचीन केरल में पाणिनीय व कातंत्रिक वैयाकरणों संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 55 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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