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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( नामान्तर हैं। नेपाल में प्राप्त इस कोश का संपादन, एफ. डब्ल्यू टॉमस द्वारा हुआ है। काकचण्डेश्वरकल्प काकचण्डेश्वरीतन्त्र, महारसायनविधिः काकचण्डेश्वरी और काकचामुण्डा) । 1) श्लोक 700 / यह ग्रंथ भैरव उमा संवाद रूप है। भगवान् भैरव ने नये ढंगसे इस में सर्वोपाधि-विनिर्मुक्त महाज्ञान की युक्ति के लिए निरूपण किया है। इसके अन्त में औषधियों के बहुत से कल्प दिये गये हैं जिनमें पारद का अंश और प्रभाव विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है महारसायन का विधान भी इसमें है। 2) इसमें यैलोक्य सुन्दरीगुटिका, जारणपटल, शाल्मलीकल्प, ब्रह्मदंडीकल्प, काकचण्डेश्वरीकल्प, हरीतकीकल्प, जलूकापटल, तालकेश्वर इत्यादि अनेक रसायन विधि दिये गये हैं । काकली - ले. यतीन्द्रनाथ भट्टाचार्य। लघु गीतों का संग्रह । काकुत्स्थविजय - चंपू ले. वल्लीसहाय गुरुनारायण। इस चंपू काव्य में "वाल्मीकी रामायण" के आधार पर श्रीराम कथा का वर्णन है । यह काव्य 8 उल्लासों में समाप्त हुआ है, और अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण इंडिया ऑफिस के कंटलाग में है इस चंपू-काव्य की शैली अत्यंत साधारण है। I कांचनकुंचिकम् (नाटक) ले विष्णुपद भट्टाचार्य रचना । सन 1956 में। "मंजूषा " पत्रिका में सन 1959 में प्रकाशित । वसन्तोत्सव में अभिनीत अंकसंख्या नौ लम्बे रंगसंकेत, सरल भाषा, बंगाली लोकोक्तियों का संस्कृतीकरण, अंग्रेजी शब्दों के संस्कृतपर्यायों में अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग, गीतों का बाहुल्य हास्योत्पादक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण इत्यादि इस की विशेषताएं हैं। कथासार सुकुमार नामक सुशिक्षित बेकार युवक को उसका डॉक्टर मित्र प्रशान्त नौकरी दिलाता है। मालिक अपनी पुत्री को निःशुल्क पढाने की शर्त रखता है पढ़ाते समय सुकुमार और विद्युत्प्रतिमा में प्रीति होती है। विद्युत्प्रतिमा की सखी कुन्दकलिका प्रशांत पर मोहित होकर बीमारी का बहाना बनाकर धीरे धीरे उसका हृदय जीत लेती है। अन्त में दोनों मित्रों का दोनो सखियों के साथ विवाह होता है। कांचनमाला ले. सुरेन्द्रमोहन । बालोचित लघु नाटक । कथावस्तु मिडास राजा की यूरोपीय पौराणिक कथा पर आध है । नायिका किसी परी से स्पर्श से स्वर्ण बनाने की शक्ति पाती है, परंतु खाद्यवस्तुएं उसके ही स्पर्श से स्वर्ण में परिवर्तित हो जाती हैं। इससे अन्त में उसे भूखा रहना पडता है । उसी परी से प्रार्थना कर उस शक्ति से मुक्ति पाती है। "मंजूषा " में प्रकाशित । . काठकगृह्यसूत्रम् - इसे लौगाक्षी गृहसूत्र भी कहा जाता है । काश्मीर में परम्यरागत मान्यता है कि इसके रचयिता लौगाक्षी आचार्य ही हैं। इसके 5 अध्याय हैं। इनसे यह जानकारी 54 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड मिलती है कि गृह्य विधियों के समय काठक संहिता के मन्त्रों का विनियोग होता था । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काठकसंहिता कृष्ण यजुर्वेद के कठ शाखा की संहिता । मंत्रों की कुल संख्या 18000 हैं। संहिता का विभाजन- 40 स्थानक, 13 अनुवचन, 843 अनुवाक अथवा 5 ग्रंथ । पतंजलि के काल में काठक व कालाप इन दो संहिताओं का अधिक प्रचार था । काठक शाखा केवल काश्मीर में ही अस्तित्व में है । प सातवलेकर ने 1943 में काठक संहिता प्रकाशित की। इसके पूर्व श्री श्रोडर नामक जर्मन विद्वान ने 1910 में इसे प्रकाशित किया था । तुलना की दृष्टि से इसका मैत्रायणी संहिता से बहुत साम्य है। दोनों के अनुवाद (मंत्रसमूह) प्रायः समान है और दोनों में अश्वमेध का वर्णन है। काश्मीर में अधिकांशतः इस शाखा के ब्राह्मण पाये जाते है। इस शाखा में शैव सम्प्रदाय का विशेष महत्त्व है जो "प्रत्यभिज्ञा दर्शन" से तुलना करने पर स्पष्ट होता है। काण्व शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा । काण्व शाखा की संहिता और ब्राह्मण (शतपथ) उपलब्ध हैं । काण्व संहिता में 40 अध्याय 328 अनुवाक और 2086 मन्त्र हैं । कण्व के शिष्य काण्व कहलाते हैं। कण्व एक गोत्र भी है, अतः कण्व नाम के अनेक ऋषि समय समय पर हुए होंगे। "एष वः कुरवो राजैष पंचालानां राजा" इस काण्वसंहिता के पाठ के आधार पर प्रतीत होता है कि काण्वों का स्थान कुरुपंचालों के समीप ही था। पांचरात्रागम का काण्व शाखा से कोई विशेष संबंध प्रतीत होता है। - काण्ववेदमंत्रभाष्य-संग्रह ले. आनंदबोध पिता जातवेद । भट्टोपाध्याय । प्रस्तुत ग्रंथ काण्वसंहिता का भाष्य है। काण्वसंहिता (शुक्ल यजुर्वेदीय) शुक्ल यजुर्वेद की काण्व संहिता, प्रतिपाद्य विषय और रचना की दृष्टि से माध्यन्दिन संहिता के समान ही है। गद्यांश में कहीं कही पाठभेद अवश्य है भौगोलिक कारणों से दोनों में कहीं कहीं उच्चारण की भिन्नता भी पायी जाती है। इसमें भी 40 अध्याय और 2086 मन्त्र हैं जिनमें "खिल्य" और "शक्रीय" मन्त्र भी सम्मिलित हैं। इसका विशेष प्रसार आज महाराष्ट्र के मराठवाडा विभाग में है । पदपाठ और घनपाठ एवं विकृतियां भी प्रचलित हैं वाजसेनयी माध्यंदिन संहिता की तरह इसमें "ष" को "ख" नहीं पढा जाता। 1 For Private and Personal Use Only व्याकरण कातन्त्र ( नामान्तर - कालापक तथा कौमार ) वाङ्मय में इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसके दो भाग हैं। 1) आख्यातान्त और 2) कृदन्त । दोनों भिन्न व्यक्ति द्वारा रचित हैं। "कातन्त्र" का अर्थ है लघुतन्त्र | आचार्य हेमचन्द्र के मत से पूर्व बृहत्तन्त्र से कलाओं का ग्रहण करने से "कलापक" नाम है। कुमारोपयोगी सरल रचना होने से "कौमार" नाम है। काशकृत्स्र धातुपाठ, कन्नड टीका सहित -
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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