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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनन्दलहरी - ले- श्रीशंकराचार्य। श्लोकसंख्या 107। श्रीगौडपादाचार्य कृत समयाचारकुलक सुभगोदया के आधार पर श्री शंकराचार्य ने 107 श्लोकों की रचना की। आरंभ के 41 श्लोक आनन्दलहरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। आनन्दलहरी के श्लोकों की संख्या कोई 41 तो कोई 35 तो कोई 30 बताते हैं। आनन्दलहरी की व्याख्या सुधाविद्योतिनी आदि के मत से निम्निलिखित श्लोक आनन्दलहरी के हैं :- 1, 2, 8, 9, 10, 11, 14 से 21 तक, 26, 27 तथा 31 से 41 तक श्लोक सौन्दर्यलहरी के हैं। आनन्दलहरी एक विद्वमान्य स्तोत्र होने के कारण उसपर विविध टीकाएं लिखी गई : (1) रहस्यप्रकाश- जगदीशतर्कालंकार-विरचित। (2) तत्त्वबोधिनी- सुबुद्धिमिश्र-प्रपौत्र, विद्यासागर पौत्र, यादवचक्रवर्ती के पुत्र महादेव विद्यावागीश भट्टाचार्य कृत। निर्माण काल 1527 शकसंवत्सर। (3) सौभाग्यवर्द्धिनी- कैवल्याश्रमकृत । (4) आनन्दलहरी-व्याख्या ले.- कविराज शर्मा । (5) सुबोधिनीनिरंजनकृत। (6) विस्तारचन्द्रिका - गोविन्द तर्कवागीश भट्टाचार्यकृत। श्लोक- 5881 (7) तत्त्वदीपिका- गंगाहरिकृत। श्लोक 1216। (8) मंजुभाषिणी- वल्लभाचार्य - पुत्र तर्कालंकार भट्टाचार्य श्रीकृष्णाचार्यकृत। श्लोक- 1674। (9) हरिभक्ति सुधोदय- विश्वामित्रगोत्रोद्भव हरिनारायण-कृत। यह व्याख्या शक्तिपक्ष और विष्णुपक्ष में की गयी है। श्लोक- 1400 । (10) आनन्दलहरीदीपिका- श्रीचन्द्रमौलि पुत्र रघुनन्दन-कृत । (11) मनोरमा-श्रीविश्वनाथ-पुत्र रामभद्रकृत । श्लोक- 1100। (12) नरसिंहकृत । भवानीपक्ष में और विष्णुपक्ष में आनन्दलहरी की व्याख्या। श्लोक- 1463 । (13) गोपीरमण तर्कपंचानन भट्टाचार्यकृत। मन्त्रादिपक्षीय। श्लोक 6611 (14) सामन्तसारनिलय- जगन्नाथ चक्रवर्ती कृत। श्लोकसंख्या 11311 (15) आनन्दलहरीरहस्यप्रकाश- जगदीश पंचानन भट्टाचार्यकृत। श्लोक- 1845। (16) आनन्दलहरीभाष्यालोचन- अतिरात्रयाजी महापात्रकृत। श्लोक 24001 (17) आनन्दलहरी- गौरीकान्त सार्वभौमकृत। (18) भावार्थदीपिका- ब्रह्मानन्दकृत। (19) सुधाविद्योतिनी - (सुधानिस्यन्दिनी) प्रवरसेनपुत्र कृत। (20) सुधाविद्योतिनी विद्वन्मनोरमा) सहजानन्दनाथ कृत । (21) गंगाधर शास्त्री मंगरूळकर (नागपूरनिवासी) कृत। (22) आनन्दलहरी-हरीवटी- ले- गौरीकान्त सार्वभौम। आनंदवृंदावन चम्पू - (1) संस्कृत के उपलब्ध सभी चंपू-काव्यों में यह बडा है। रचयिता परमानंददास सेन जिन्हें 'कवि कर्णपूर' भी कहा जाता है। कर्णपूर का समय ई. 16 वीं शती। वे कांचनपाडा (बंगाल) के निवासी हैं। डॉ. बांकेबिहारी कृत हिंदी अनुवाद के साथ इसका प्रकाशन वाराणसी से हो चुका है। इस चंपू में 22 स्तबक हैं और भगवान् श्रीकृष्ण की कथा प्रारंभ से किशोरावस्था तक वर्णित है। इसका आधार भागवत का दशम स्कंध है। प्रस्तुत काव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं व नायिका है राधिका। प्रधान रस-श्रृंगार । कृष्ण के मित्र 'कुसुमासव' की कल्पना कर, उसके माध्यम से हास्य रस की भी सृष्टि की गई है। (2) ले- केशव। (3) ले- माधवानन्द। आनन्दसंजीवनम् - ले- मदनपाल। कन्नौज के नृपति। ई. 12 वीं शती का पूर्वार्ध। विषय- संगीतशास्त्र। आनन्दसागर-स्तव - ले- नीलकण्ठ दीक्षित । ई. 17 वीं शती। आनन्दसुन्दरी- (सट्टक) ले- धनश्याम आर्यक । ई. 18 वीं शती। आनन्दार्णवतन्त्र (नामान्तर- चतुःशतीसंहिता) - पटल101 श्लोकसंख्या- 480। यह आनन्दतन्त्र से सर्वथा भित्र है। सर्वमंगला और सर्वज्ञ के संवाद में विषय का प्रतिपादन किया है। विषय- श्रीविद्या का स्वरूप, जन्मचक्रक्रम, दीक्षाकरण, त्रिपीठचक्र, विविध विद्याएं, विभूतियां आदि नवयोन्यकित अस्त्रचक्र, दीक्षित द्वारा गुरुपादुका-पूजन श्रीविद्याका साधन,वाक्सिद्धि आदि निखिल सिद्धियों की प्राप्ति के उपाय मालामंत्र आदि। आनन्दोद्दीपिनी - श्लोकसंख्या 300 । रचनाकाल- ई. 1833 । यह फेत्कारिणी तन्त्र के स्वरूपाख्यस्तोत्र की ब्रह्मानन्द सरस्वती कृत व्याख्या है। आपस्तंब-कल्पसूत्रम् - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के इस कल्पसूत्र के 30 भाग हैं। उन्हें "प्रश्न" संज्ञा दी गई है। प्रथम 24 प्रश्न श्रौतसूत्र है। उनमें वैतानिक यज्ञ की जानकारी है। 24 वां प्रश्न श्रौतसूत्र की परिभाषा है। 25 एवं 26 में मंत्रपाठ है। 27 गृह्यसूत्र एवं 28-29 में धर्मसूत्र हैं। इनमें चातुर्वर्णिकों के कर्त्तव्य दिए गये है। 30 वें प्रश्न को शुल्बसूत्र कहते हैं। आपस्तंब-धर्मसूत्र- 'आपस्तंब-कल्पसूत्र' के दो प्रश्न (क्रमांक 28 व 29) ही 'आपस्तंब-धर्मसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस पर हरिदत्त ने 'उज्ज्वला' नामक टीका लिखी है। इसकी भाषा बोधायन की अपेक्षा अधिक प्राचीन है, और इसमें अप्रचलित एवं विरल शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इसमें अनेक अपाणिनीय प्रयोग प्राप्त होते है। इसमें सहिता के साथ ही साथ ब्राह्मणों के भी उद्धरण मिलते हैं तथा प्राचीन 10 सूत्रकारों का उल्लेख है- काण्व, कुणिक, कुत्सकौत्स, पुष्करसादि, वाष्ययिपि, श्वेतकेतु, हारीत आदि। इसके अनेक निर्णय जैमिनि से साम्य रखते हैं तथा मीमांसा शास्त्र के अनेक पारिभाषिक शब्दों का भी इसमें प्रयोग किया गया है। इसका समय ई. पू. छटी शताब्दी से चौथी शताब्दी तक माना जाता है। इसके प्रणेता (आपस्तंब) के निवासस्थान के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं। डॉ. बूलर के अनुसार वे दाक्षिणात्य थे किंतु एक मंत्र में यमुनातीरवर्ती साल्वदेशीय यह उल्लेख होने के कारण इनका निवास स्थान मध्यदेश माना जाता है। 28 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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