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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगीतसुधा - ले.- रघुनाथ नायक। तंजौर-नरेश। वास्तव में इसके रचियता गोविन्द दीक्षित हैं, पर रघुनाथ के नाम पर ही प्रसिद्ध है। इसमें तंजौर राजाओं का और विशेष कर संगीततज्ञ रघुनाथ का इतिहास वर्णित है। पुरातन रचनाओं में प्रत्येक राग का अंश, न्यास तथा ग्रह दिया है, इसमें उनकी श्रुति, स्वर तथा आलापिका भी दी है। ऐसे 50 रागों का विवरण है। प्रत्येक विवरण वीणा वादन के लिये पूर्ण है 'तीसरा और चौथा अध्याय प्रबन्ध तथा उनसे संबन्धित सूक्ष्म बातों की चर्चा से युक्त है। संगीतसुधाकर - ले.- हरिपालदेव। यादववंशीय देवगिरि के नरेश । यह अपने को "विचारचतुर्मुख" तथा "वीणातन्त्र-विशारद" कहते हैं। इन्होंने 100 रचनाएं लिखीं जो चित्ताकर्षक तथा रसप्रचुर हैं। श्रीरंगम् के मन्दिर में गायकनर्तकी के आग्रह पर इन्होंने अपनी यह रचना लिखी। 6 अध्याय। विषय- नाट्य, ताल, वाद्य, रस तथा प्रबन्ध, परिशिष्ट में गायकलक्षण। संगीतसुधाकर - ले.- शिंगभूपाल। इन्होंने साहित्यशास्त्र के अतिरिक्त संगीतशास्त्र के क्षेत्र में संगीतरत्नाकर पर लिखित अपने प्रस्तुत टीका ग्रंथ के कारण पर्याप्त ख्याति अर्जित की है। संगीतरत्नाकर की ज्ञात टीकाओं में यह सर्वाधिक प्राचीन टीका है और यह परवर्ती टीकाकारों की उपजीव्य रही है। रसार्णवसुधाकर तथा संगीतसुधाकर नामकरण में भी स्पष्ट एक-कर्तृत्व देखा जा सकता है। संगीतरत्नाकर की शिंगभूपाल कृत सुधाकर टीका में प्रबन्धांग प्रकरण की कारिका में प्रयुक्त विरुद्धपद की व्याख्या में लिखा है- “गुणनाम-भुजबलभीमादि विरुदशन्देनोच्यते" "भुजबलभीम" शिंगभूपाल का ही बिरुद है और पुष्पिका में इसका प्रयोग है। रसार्णवसुधाकर की पुष्पिका में भी ऐसा ही प्रयोग है। शिंगभूपाल के ग्रंथ तथा टीकाएं उनके विस्तृत एवं गहन शास्त्रज्ञान के परिचायक हैं। संगीत के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन तो उन्होंने किया ही था, साथ ही अपने आचार्यों तथा समकालीन बुधजनों के सान्निध्य एवं विचारविमर्श से उन्होंने संगीत के शास्त्रीय एवं क्रियात्मक पक्षों का ज्ञान भी अर्जित किया था। शिंगभूपाल ने लिखा है कि भरत की सांगीतिक परंपरा उनके समय तक दुर्बोध समझी जाने लगी थी। आचार्य शारंगदेव के उदय से पूर्व संगीतपद्धति बिखर गई थी (खिला संगीतपद्धतिः) जिसे शारंगदेव ने स्फुट किया था। आचार्य ने दुर्बोध ग्रन्थों को समझने के लिए एक पगडण्डी बनाई और शिंगभूपाल ने उस पगडण्डी को सुगम प्रशस्त पथ के रूप में परिणत करने का संकल्प किया। संगीतसुन्दरम् - ले.- सदाशिव दीक्षित । संगीतसूर्योदय - ले.- लक्ष्मीनारायण भण्डारु । विजयनगर के सम्राट् कृष्णदेवराय के सम्मानित वागेयकार। उपाधियांअभिनवभरताचार्य, तोडरमल्ल, सूक्ष्मभरताचार्य। इस रचना के ताल, वृत्त, स्वरगीत, जाति तथा प्रबन्ध नामक पांच अध्याय हैं। संगीतामृतम् - ले.- कमललोचन। संगीतोपनिषद् - ले.- सुधाकलश। ई. 14 वीं शती। नृत्यगीतपरक रचना। 6 अध्याय। इस पर स्वतः लेखक की टीका है। संग्रह - ले.- व्याडि। पाणिनीय तत्र का व्याख्यान परंपरा के अनुसार प्रसिद्ध ग्रंथ। एक लक्ष श्लोक। चौदह हजार वस्तुओं की परीक्षा। अनन्तरकालीन वैयाकरणों द्वारा ग्रंथ की भूरि प्रशंसा की गई। यह अप्राप्य ग्रंथ यत्र तत्र उधृत है। 21 सूत्र व्याडि के संग्रह के निश्चित रूप में ज्ञात हुए हैं। संग्रहचूडामणि - ले.- षण्मुख, (अपर नाम गुह) इसके 3 अध्यायों में संगीत की उत्पत्ति तथा स्वरों का विवरण है। सदानन्द तथा शागदेव का नामोल्लेख होने से यह रचना 14 वीं शती के बाद की है। मूल षण्मुख की रचना लुप्त हो गई है, उपलब्ध रचना किसी ने प्राचीन नाम से ही प्रस्तुत की हो। संभवतः प्राचीन लेखक के मतों का ही इसमें विवरण है। संग्रहवैद्यनाथीयम् - ले.- वैद्यनाथ। संघगीता - ले.- डॉ. श्री. भा. वर्णेकर। (प्रस्तुत कोश के संपादक) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री गुरुजी गोलवलकर और संघस्वयंसेवक के संवाद द्वारा संघटना-सिद्धान्त की विचारधारा एवं उसकी कार्यपद्धति का सुभाषितात्मक श्लोकों में प्रतिपादन इस संघगीता का प्रयोजन है। हिन्दी, कन्नड और मलयालम अनुवादों सहित जयपुर, बंगलोर तथा त्रिवेंद्रम से प्रकाशित । इंग्लैंड में इसका अंग्रजी अनुवाद सन् 1987 में प्रकाशित हुआ। संजीवनी विद्या- ईश्वर-वसिष्ठ संवादरूप । अध्याय-12 | विषयमंत्रोद्धार, अपस्मारहरण, सालम्बयोग, अपूर्व सेवाविधि, होमविधि सन्तानकामेश्वरी-गोप्यविधानम् - श्लोक- 70। इसमें महाराष्ट्र भाषा में विधान हैं। एवं मन्त्र आदि संस्कृत भाषा में है। संतानगोपालकाव्यम् - ले.- कडथानत-येडवालात । ई. 19 वीं शती। सन्तानगोपाल-मन्त्रविधि - श्लोक- 4001 सन्तानदीपिका - ले.- केशव । विषय-संतानहीनता के ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कारण। (2) ले.- महादेव। (3) ले.हरिनाथाचार्य। सन्तानान्तरसिद्धि - ले.- धर्मकीर्ति। 72 सूत्रों की लघु रचना। विषय-अनेक सन्ताने विद्यमान होना। सन्देशद्वयसारास्वादिनी (निबन्ध) - ले.- व्ही. गोपालाचार्य तिरुचिरापल्ली-निवासी। विषय मेघ तथा हंस संदेश की तुलना । सन्निपातकलिका - ले.- धन्वंतरि । विषय-आयुर्वेद । सन्मतनाटकम् - ले.- जयन्तभट्ट । सन्मतिकल्पलता - ले.- रंगनाथाचार्य । 398 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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