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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वानन्द-तरंगिणी - ले.- शिवनाथ भट्टाचार्य। पिता एवं गुरुसर्वानन्दनाथ। श्लोक-- 500। कहते हैं श्रीसर्वानन्दनाथ को भवानी-चरणयुगल का साक्षात्कार था। वे जिला कुमिल्ला के अन्तर्गत मेहार राज्य के निवासी थे। उनकी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता नहीं किन्तु जब दास नामक राजा मेहार का शासन करते थे तब सर्वानन्दनाथ विद्यमान थे। सर्वार्थसार - ले.- वेंकटेश्वर। यह रामायण की टीका है। सर्वार्थसिद्धि - ले.- देवनंदी। ई. 5 वीं शती । सहगमनविधि (या सतीविधानम्) - ले.- गोविन्दराज। 66 श्लोकों में पूर्ण। सहचारविधि - विषय- पति की चिता पर भस्म होती हुई सती के विषय के कृत्य। सहृदय - ले.- हरि। विषय- आचारधर्म । सहदया - ले.- दक्षिण भारत के श्रीरंगम् से 1895 में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। बाद में यह मद्रास से प्रकाशित होने लगी। आर. कृष्णमाचारियार तथा आर.व्ही. कृष्णमाचारियार के संपादकत्व में इस पत्रिका ने अपने उच्चस्तर के कारण सम्मानजनक स्थान प्राप्त किया। इसमें अधिकांश चित्र कृष्ण और सरस्वती के रहते थे। इसका वार्षिक मूल्य 3 रु. था। कुल 32 पृष्ठों वाली इस पत्रिका में सरस कविता, गद्य, निबन्ध, अनुवाद, रूपान्तर के अलावा पाश्चात्य ढंग की आलोचना को विशेष महत्त्व दिया जाता था। इसके सम्पादकों की यह धारणा थी कि संस्कृत भाषा में आधुनिक और वैज्ञानिक विषयों पर प्रकाश डालने की अपूर्व क्षमता है। इस पत्रिका में भाषा - विज्ञान और तुलानात्मक अध्ययन सम्बन्धी निबन्धों का प्राचुर्य था तथा अर्वाचीन विषयों को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इसने शोध-पत्रिका के रूप में विशेष ख्याति अर्जित की। 25 वर्षों के बाद बंद हुई। (2) सहृदयायह पत्रिका संभवतः 1906 में त्रिचनापल्ली से प्रकाशित हुई। संस्कृतचन्द्रिका के अनुसार 'अचिरादेव त्रिचनापल्लीतः सहृदयाख्या कापि संस्कृतमासिकपत्रिका कैश्चिद्विद्वत्तमैः संपाद्यमाना प्रादुर्भविष्यतीत्यवबुध्यमाना एकान्ततः प्रणन्दामः" । इन शब्दों में । इस पत्रिका का निर्देश हुआ है। सहृदयानन्दम् (या सहजानन्दम्) प्रहसन - ले.- हरिजीवन मिश्र। 17 वीं शती। इसमें शब्द-शक्ति, नायिकाभेद आदि साहित्यिक विषयों का विवेचन हास्योत्पादक ढंग से किया है। ब्रह्मज्ञान की प्रप्ति के लिए साधना की आवश्यकता है, जब कि काव्य-रसानन्द श्रवणमात्र से प्रकाशित होता है। अखण्डानन्द या काव्यरसास्वाद सर्वोपरि माना जाता है, और राजा प्रसन्न हो उसे प्रचुर धन देता है। नायिका के भाई कहते हैं कि हम हीनदीन रहकर इस धनवान वर का स्वागत कैसे करेंगे, तब राजा उन्हें भी यथेष्ट धन देता है और विवाह संपन्न होता है। सहस्रकिरणी - ले.- आन्दान श्रीनिवास। यह शतदूषणी का खण्डन है। सहस्र-गीति - ले.-शठकोपमुनि। वैष्णवों के श्रीसंप्रदाय के प्रधान आलवार सन्त। एक गंभीर रस-भावापन्न ग्रंथ। यह 7 वीं शती की रचना मानी जाती है। इसमें 10 शतक हैं और प्रत्येक शतक में 10 दशक और प्रत्येक दशक में प्रायः 11 गाथाएं हैं। नाम "सहस्रगीति" होते हुए भी इस ग्रंथ में समाविष्ट गाथाओं की संख्या 1,113 है। इनमें मुख्यतः नारायण, कृष्ण और गोविंद को ही संबोधित करते हुए प्रार्थना एवं उपलंभ हैं। श्रीराम से संबद्ध 2 ही भावापन्न गाथाएं इस ग्रंथ में हैं। 2) सहस्र-गीति - ले.-शठकोपाचार्य। आलवारों की श्रीराम के प्रति मधुर भावना का एक प्रातिनिधिक ग्रंथ। प्रस्तुत सहस्र-गीति में राम के प्रति माधुर्यमयी प्रार्थना की गई है यथा-हे प्रभो,, आपका वियोग-कष्ट इतना बढ़ गया है कि उसने शरीर को लाख की तरह गला कर पतला कर दिया है। आप इतने निर्दयी बन बैठे हैं कि उसकी खबर भी नहीं लेते। आपने राक्षसों की लंकापुरी का समूल नाश करते हुए शरणागत-वत्सल की प्रसिद्धि पाई है परंतु आपकी इस निर्दयता को आज क्या कहूं क्लेशादियं मनसि हन्त विभाति चाग्नौ लाक्षादिवत् द्रुततनुर्बत निर्दयोऽसि । लङ्कां तु राक्षसपुरीं नितरां प्रणाश्य प्रख्यातवान् किल भवान् किमु तेऽद्य कुर्याम् (सहस्र-गीति 2, 1, 4, 3,) भगवान राम की मधुर भाव से उपासना करने वाले भक्तों को "रसिक" कहते हैं। इस साधना में रसिक शब्द इसी अर्थ में रूढ हो गया है। सहस्रचण्डीविधानम् - ले.-कमलाकर। पिता- रामकृष्ण। ई. 17 वीं शती। सहस्रनाम-कला - ले.-तीर्थस्वामी। सहस्रनाममाला स्तोत्र तथा कला नामक उसकी व्याख्या है। तीर्थस्वामी ने स्वयं संकलित 40 सहस्रनामों में गूढार्थ नामों की कला नामक व्याख्या लिखी है। विषय- भुवनेश्वरी का 1, अन्नपूर्णा के 2, महालक्ष्मी का 1, दुर्गा के 7, काला के 4, तारा के 5, त्रिपुरा के 3, भैरवी के 2, छिन्नमस्ता का 1, मातंगी का 1, सुमुखी का 1, सीता के 2, शिव के 7, राम के 2 और कृष्ण के 2 सहस्र नाम हैं। सहस्रभोजनसूत्रव्याख्या - ले.-भास्कराय। गम्भीरराय दीक्षित के पुत्र । सूत्र बोधायन के हैं। सहस्रांशु - सन 1926 में इस मासिक पत्रिका का प्रकाशन वाराणसी से आरंभ हुआ। इसके सम्पादक और प्रकाशक गौरीनाथ पाठक थे। इसका वार्षिक मूल्य डेढ रुपिया तथा एक अंक का मूल्य दो पैसा था। इस पत्र की भाषा सरल थी। इस में विज्ञान, साहित्य, धर्म, जीवनचरित तथा समाजसंबंधी निबन्धों का प्रकाशन होता था। पत्र में बालकों के लिये भी 394 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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