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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्रुबिंदु - कवि- यादवेश्वर तर्करत्न, लेखनसमय- 1901 । रानी व्हिक्टोरिया के निधन पर शोककाव्य । अश्रुविसर्जनम् - ले. यादवेश्वर तर्करत्न महामहोपाध्याय । खण्डकाव्य। विषय- वाराणसी के पूर्ववैभव का स्मरण कर विषाद कथन। सन् 1900 में प्रकाशित । अश्वारूढामन्त्रप्रयोग - विषय- बगलामखी देवी के यंत्र और मंत्र का प्रयोग। श्लोकसंख्या 32। अश्वमेध (अथवा जैमिनि-अश्वमेध) - कहते हैं कि महाभारत का अश्वमेधपर्व जैमिनि के अश्वमेध का अनुवाद है। एक कथा के अनुसार जैमिनि मुनि ने व्यास के समान संपूर्ण भारत की रचना की थी परंतु व्यास ने उसे शाप दिया। उसमें अश्वमेध प्रकरण जो अपूर्व था, उसका समावेश महाभारत में किया गया। महाभारत और जैमिनि-अश्वमेध का विषय एक ही है पर दोनों में पूर्णतः एकवाक्यता नहीं है। यह ग्रंथ ऐतिहासिक एवं भौगोलिक दृष्टि से अनमोल है। पांडवों के अश्वमेध का श्यामकर्ण घोडा जहां-जहां गया, वहां का वर्णन इसमें मिलता है। कुल 68 अध्याय एवं 5169 श्लोक हैं। इस ग्रंथ में अनेक स्थानों पर भोजन समारंभ का वर्णन है जिससे तत्कालीन खाद्य-पदार्थों की कल्पना की जा सकती है। अश्वारूढामन्त्रप्रयोग - विषय- बगलामुखी देवी के यंत्र और मंत्र का प्रयोग। श्लोकसंख्या-22 । अष्टप्रास- (1) ले. रामभद्र दीक्षित। कुम्भकोणं के निवासी। ई. 17 वीं शती। (2) ले. सुंदरदास । पिता- रामानुजाचार्य। अष्टबन्धनग्रन्थ - ले. सदाशिवाचार्य, श्लोक- 44001 शैवागम से गृहीत ग्रंथ। अष्टमंगला - ले. रामकिशोर चक्रवर्ती। दुर्ग की कातन्त्रवृत्ति के आठवें भाग की व्याख्या। अष्टमहाश्रीचैत्यस्तोत्रम् - रचयिता- सम्राट. हर्षवर्धन। विषयशोभन छन्दों में ग्रथित आठ महनीय तीर्थस्थानों की संस्तुति । तिब्बती प्रतिलेख के आधार पर सिल्वा लेवी द्वारा अनूदित । अष्टमी-चम्पू - ले. नारायण भट्टपाद । अष्टशती (अपर नाम- देवागमविवृति) - ले.-दिगंबरपंथी जैन मुनि अकलंकदेव। ई. 8 वीं शती। समंतभद्र के आत्ममीमांसा ग्रंथ पर लिखा गया टीकाग्रंथ । जैन तर्कशास्त्र के ग्रंथों में यह उच्च कोटि का माना जाता है। अष्टसहस्त्री - ले. विद्यानन्द। जैनाचार्य। ई. 8-9 वीं शती। टीका ग्रंथ। अष्टांगहृदय - आयुर्वेद विषयक विख्यात ग्रंथ। प्रणेता बौद्ध पंडित वाग्भट (5 वीं शती)। वस्तुतः वाग्भट का सुप्रसिद्ध ग्रंथ "अष्टांगसंग्रह" गद्य-पद्यमय है, और प्रस्तुत ग्रंथ'अष्टांगहृदय' कोई स्वतंत्र रचना न होकर 'अष्टांगसंग्रह' का पद्यपय संक्षिप्त रूप है। यह चरक और सुश्रुत पर आधारित है। इसमें 120 अध्याय हैं जिनके 6 विभाग किये गए हैंसूत्रस्थान, शारीरस्थान, निदानस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान और उत्तरतंत्र । इनमें आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध 8 अंगों का विवेचन है। ___ इस पर 'चरक' व 'सुश्रुत' के टीकाकार जेजट ने भी टीका लिखी। इस पर 34 टीकाओं के विवरण प्राप्त होते हैं जिनमें आशाधार की उद्योत टीका, चंद्रचंदन की पदार्थचंद्रिका, दामोदर की संकेतमंजरी व अरुणदत्त की सर्वागसुंदरी टीकाएं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसका हिंदी अनुवाद हो चुका है! इसके हिंदी टीकाकार अग्निदेव विद्यालंकार हैं। प्रकाशनस्थान चौखंबा विद्याभवन । पं. गोवर्धन शर्मा छांगाणी (नागपुर-महाराष्ट्र) ने इस पर हिंदी में टीका लिखी है। टीका का नाम है 'अर्थप्रकाशिका'। अष्टादश पीठ - इसमें देवी के अठारह विभिन्न नाम प्रतिपादित है, जिन नामों से विभिन्न पवित्र स्थानों (पीठों) पर शक्ति देवी की पूजा की जाती है। अष्टादश-लीला छन्द - ले. रूप गोस्वामी। ई. 16 वीं शती। विषय- श्रीकृष्णविषयक भक्तिकाव्य। अष्टादशविचित्रप्रश्नसंग्रह (उत्तरसहित) - ले. नृसिंह उपाख्य बापूदेव शास्त्री। विषय- ज्योतिषशास्त्र । ई. 19 वीं शती। अष्टाध्यायी - व्याकरण शास्त्र पर पाणिनिविरचित सूत्ररूप आठ अध्यायों का प्रख्यात ग्रंथ। वेद के 6 अंगों में इसकी गणना है। इसमें 1981 सूत्र है। प्रारम्भ में वर्णसमानाय के 14 प्रत्याहारसूत्र हैं जो जनश्रुति के अनुसार शिव के डमरू की ध्वनि से निकले। इसे 'सर्ववेदपरिषद्शास्त्र' कहा गया है। इसमें शाकटायन, शाकल्य, आपिशलि, गार्ग्य, गालव, शौनक, स्फोटायन, भारद्वाज, काश्यप, चाक्रवर्मण इन वैयाकरण पूर्वाचार्यो का उल्लेख है। अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों के प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। प्रत्येक अध्याय एवं पाद में सूत्रों की संख्या प्रायः समान है। प्रथम व दूसरे अध्याय में संज्ञा एवं परिभाषा संबंधी सूत्र हैं। तीसरे से पांचवें अध्यायों में कृदन्त, तद्धित का निरूपण, छठे में द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम लोप, दीर्घ पर सूत्र हैं। सातवे में 'अंगाधिकार' प्रकरण है। आठवें में द्वित्व, प्लुत, णत्व, षत्व, के नियम हैं। पूर्वोपलब्ध व्याकरण शास्त्र का यत्र तत्र आधार लेकर पणिनि ने संक्षेप रूप में अपनी अष्टाध्यायी की रचना की है। अष्टाध्यायी में वैदिक संस्कृत तथा तत्कालीन शिष्ट भाषा संस्कृत का सर्वांगपूर्ण विचार किया गया है। इसके 4 नाम उपलब्ध होते हैं- (1) अष्टक (2) अष्टाध्यायी (3) शब्दानुशासन एवं (4) वृत्तिसूत्र । शब्दानुशासन नाम का उल्लेख पुरुषोत्तम देव, सृष्टिधराचार्य मेधातिथि, न्यासकार तथा जयादित्य ने किया है। महाभाष्यकार पंतजलि भी इसी ग्रंथनाम का उपयोग करते हैं। महाभाष्य के दो स्थानों पर 'वृत्तिसूत्र' नाम आया है। जयंत भट्ट की 20 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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