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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra . www.kobatirth.org पुत्रप्राप्ति हेतु तप करते हैं। उनके भाग्य में पुत्रसुख नहीं है, परन्तु पार्वती के अनुरोध पर शिव उन्हें अल्पायु सर्वज्ञ पुत्र पाने का वर देते हैं। मुनि उपमन्यु, मार्कण्डेय को मृत्युंजय मन्त्र जपने का उपदेश देते हैं। माता-पिता भी पुत्र की दीर्घायु हेतु आराधना करते हैं। एक दिन विशालाक्षी देखती है यमदूत मार्कण्डेय की और जा रहे हैं परन्तु वे परास्त होते हैं। फिर साक्षात् यमराज महिषारूढ होकर हमला करते हैं परंतु जप में लीन मार्कण्डेय को बचाने साक्षात् शिव उससे लडते हैं और यम मूर्च्छित होते हैं। अन्त में मार्कण्डेय की प्रार्थना से ही यम सचेत होते हैं और मार्कण्डेय अमर बनते हैं। अमरमाला ले. अमरदत्त (दसवीं शती के पूर्व) क्षीर, हलायुध सर्वानन्द आदि के उद्धरणों द्वारा ही यह ग्रंथ ज्ञात है। अमरमीरम् (नाटक) ले यतीन्द्रविमल चौधुरी प्राच्यवाणी । मंदिर, कलकत्ता से प्रकाशित अंक संख्या बारह । संत मीराबाई के विवाहोत्तर जीवन का कथानक इसमें वर्णित है। अमरशुक्तिसुधाकर मूल फारसी काव्य उमरखय्याम की रूबाइयां के फिट्जेराल्डकृत अंग्रेजी अनुवाद से प्रथम संस्कृत रूपान्तर । कर्ता झालवाड संस्थान के राजगुरु पं. गिरिधर शर्मा । वृत्त पृथ्वी । ई. 1929 में प्रकाशित । 1 - अमर्ष महिमा (रूपक) ले. के. तिरुवेंकटाचार्य 'अमरवाणी' (मैसूर) से सन् 1951 में प्रकाशित। दृश्यसंख्या- पांच । कथासार - भोजन स्वादहीन बनने से रामचंद्र बिना खाये पत्नी से कूद्ध होकर कार्यालय जाता है वहां सहायक चन्द्रशेखर पर क्रोध करता है। चन्द्रशेखर घर आकर पत्नी पर क्रोध उतारता है और वह नौकरानी पर आग बरसती है। अमरुशतकम् ले. राजा अमरुक । श्लोकसंख्या- 1001 शृंगाररस प्रधान मुक्तक काव्य । किंवदन्ती है कि राजा अमरु का देहान्त हुआ। उसी समय विधिवश शंकराचार्य अपने शिष्यों सहित वहां पहुंचे। उन्हें शारदाम्बा के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना था। इसलिये आचार्य परकाया प्रवेश की सिद्धि से अमरु राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर गए। राजा अमरु के जीवित हो उठने पर प्रधान तथा सारी प्रजा बडी प्रसन्न हो उठी। सीमित काल तक अमरु राजा के देह में कामशास्त्र के भिन्न भिन्न अनुभव प्राप्त करते हुए शंकराचार्य ने प्रस्तुत "अमरुशतक" नामक शृंगारिक खण्ड काव्य की रचना की । इस प्रकार शृंगार का अनुभवज्ञान प्राप्त कर आचार्य ने अपने निजी शरीर में प्रवेश किया और मंडनमिश्र की पत्नी शारदाम्बा को विवाद में हराया। यह शतक, हस्तलेखों में, विभिन्न दशाओं में प्राप्त हुआ जिनमें श्लोकों की संख्या 100 से 115 तक मिलती थी। इसके 51 श्लोक ऐसे हैं जो समान रूप से सभी प्रतियों में प्राप्त होते हैं, किंतु उनके क्रम में अंतर दिखाई पड़ता है । कतिपय विद्वानों ने केवल शार्दूलविक्रीडित छंद वाले श्लोकों को अमरुक की मूल रचना मानने का विचार व्यक्त किया है, किंतु तदनुसार केवल 61 ही पद्य रहते है, और शतक पूरा नहीं हो पाता। कुछ विद्वान "अमरुक शतक" के प्राचीनतम टीकाकार अर्जुनवर्मदेव (ई. 13 श.) के स्वीकृत श्लोकों को ही प्रामाणिक मानने के पक्ष में हैं। ध्वन्यालोकाकार आनंदवर्धन (ई. 10 श.) ने अत्यंत आदर के साथ "अमरुकशतक" के मुक्तकों की प्रशंसा कर उन्हें अपने ग्रंथ में स्थान दिया है। इनसे पूर्व वामन (ई. 10 श.) ने भी अमरूक के 3 श्लोकों को बिना नाम दिये ही उदधृत किया है। अर्जुनवर्मदेव ने अपनी टीका "रसिकसंजीवनी” में इस "शतक" के पद्यों का पर्याप्त सौंदर्योद्घाटन किया है। इसके अतिरिक्त वेमभूपाल रचित "शृंगारदीपिका" नामक टीका भी अच्छी है। "अमरुकशतक" की भाषा अभ्यासजन्य श्रम के कारण अधिक परिष्कृत एवं कलाकारिता और नकाशी से पूर्ण है। पद-पद सांगीतिक सौंदर्य एवं भाषा की प्रौढी के दर्शन इस " शतक" के श्लोकों में होते हैं, जिनमें ध्वनि एवं नाद का समन्वय परिदर्शित होता है। अमरुशतक के टीकाकार (1) अर्जुनवर्मदेव (2) कोकसम्भव, (3) शेष रामकृष्ण, (4) चतुर्भुज मिश्र, (5) नन्दलाल, (6) रूद्रदेव, (7) रविचन्द्र, ( 8 ) रामरूद्र, ( 9 ) वेमभूपाल, (10) सूर्यदास, (11) शंकराचार्य, (12) वेंकटवरद, (13) हरिहरभट्ट (14) देवशंकरभट्ट (15) गोष्ठीपुरेन्द्र, (16) ज्ञानानन्य कलाधर सेन और गंगाधर कविराज (15 वीं शती) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only - अमूल्यमाल्यम् ले. जग्गू श्रीबकुल भूषण । सन 1948 में प्रकाशित। अंकसंख्या- दो। चटपटे संवाद, मधुर गीत, नृत्य का समावेश । कृष्ण की बाललीलाओं की झांकी इत्यादि इसकी विशेषता है। कथासार वनमाला नामक गोपी का नवनीत कृष्ण चुराता है । वह कृष्ण को ढूंढने निकलती है, तो दधिभाण्ड गोप छुपा लेता है। बाद में किसी जामुनवाली को किसी कन्या से स्वर्णकंकण दिलवा कर जामुन बिकवाता है। घर जाने पर वे जामुन स्वर्ण के हो जाते हैं। दधिभाण्ड को चतुर्भुज कृष्ण का दर्शन मिलता है और वह मोक्ष पाता है । द्वितीय अंक में कृष्ण मथुरा जाते हैं। वहां कुब्जा से प्रसाधन ग्रहण कर उसे सुंदरी बनाते हैं। एक कृष्णभक्त मालाकार से कृष्ण वेष बदलकर पुष्पमाला खरीदने जाते हैं, परंतु वह नकारता है कि यह माला भगवान् के लिए है । उसे भी कृष्ण चतुर्भुज रूप दिखा कर मुक्त करते हैं। अमोघराघवयंपू ले. दिवाकर। पिता-विश्वेश्वर । रचनाकाल 1299 ई. । इस चंपू का विवरण त्रिवेंद्रम केटलाग में प्राप्त होता है। इसकी रचना "वाल्मीकि रामायण" के आधार पर हुई है। - - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 15
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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