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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में गर्भदृति की विधि, छठे में जारण व सातवें में विड-विधि। निरूपण है। दश रूपकों का लक्षणभेद आदि का विस्तृत वर्णित है। इसी प्रकार क्रमशः 19 वें अवबोध तक रसरंजन, विवरण देने के पश्चात् नाटक परिभाषा में भाषा आदि के भेद बीजनिर्वाहण, द्वंद्वाधिकार, संकरबीज-विधान, संकरबीज-जारण, निर्देश के अन्तर्गत पूज्य, समान, कनिष्ठ के सम्बोधन प्रकार बाह्यदृति, सारण, क्रामण, वेधविधान व शरीरशुद्धि के लिये तथा नायक, नायिका, कंचुकी, विदूषक आदि पात्रों के नामकरण रसायन सेवन करने वाले योगों का वर्णन है। इसमें पारद के के निर्देश दिये गये हैं। अन्त में सत्काव्य की प्रशंसा करते संबंध में अत्यंत व्यवस्थित ज्ञान उपलब्ध होता है। इस ग्रंथ हुए ग्रंथ की समाप्ति की गई है। का प्रथम प्रकाशन आयुर्वेद ग्रंथमाला से हुआ था, जिसे - रसाणव-सुधाकर में प्रत्येक बिन्दु को उदाहरण से स्पष्ट यादवजी त्रिकमजी आचार्य ने प्रकाशित कराया था। इसका, किया गया है। उदाहरण संस्कृत साहित्य के विशाल क्षेत्र से हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशन, चौखंबा विद्याभवन से हुआ है। लिये गये हैं। इनकी संख्या साढे पांच सौ से भी अधिक रसाकुंश - रहस्यसंहिता के अन्तर्गत देवी-ईश्वरसंवादरूप।। है। इनमें शिंगभूपाल के स्वरचित पद्य भी सम्मिलित हैं, कुछ विषय- रसायनविधि एवं सुवर्ण बनाने की विधि। पटल-6।। तो कुवलयावली से उद्धृत हैं, तथा कुछ कंदर्पसंभव के हो रसामृत-शेष - ले.- विश्वनाथ चक्रवर्ती। ई. 17 वीं शती। सकते हैं। शेष स्फुट मुक्तक पद्य हैं। रसार्णवतरङ्गभाण- ले.- कृष्णम्माचार्य । रंगानाथचार्य के पुत्र। रसिककल्पलता • ले.- मोहनानन्द। विषय- कृष्णचरित्र । रसार्णवसुधाकर - ले.-शिंगभूपाल। गुरु-विश्वेश्वर। , यह रसिकजनमनोल्लास (भाण) - ले.- वेंकट। ई. 19 वीं नाट्यशास्त्र का प्रसिद्ध प्रकरण ग्रंथ है। इसकी रचना दशरूपक शती। तिरुपति के देवता श्रीनिवास के वासंतिक महोत्सव का के आर्दश के अनुसार हुई है। इस ग्रंथ में तीन विलास हैं। वर्णन। विटाचार्य कोक्कोंकोपाध्याय द्वारा विट तथा वारांगनाओं जिनमें क्रमशः 314, 265, 351 श्लोक हैं। विलासों के नाम को दिया जाने वाला प्रशिक्षण इस भाण में चित्रित किया है। हैं : रंजक, रसिक और भावक। प्रथम उल्लास के प्रारंभ में रसिकजन-रसोल्लास (भाण) - ले.-कौण्डिन्य वेंकट। ई. अर्धनारीश्वर एवं वाणी की वंदना और श्लोक 3 से श्लोक 18 वीं शती। 43 तक कवि ने अपने वंश का वर्णन किया है। ग्रंथकर्ता रसिकजीवनम् - ले.- रामानन्द। ई. 17 वीं शती। की प्रवृत्ति, निमित्तता, नाट्यवेद की उत्पत्ति, प्रवर्तक मुनि, रसिक-तिलकम् (भाण) - ले.- मुद्रदुराम। श. 18। प्ररोचना एवं नाट्यलक्षण के विवेचन से विषय का उपक्रम कमलापुरी तंजौर में त्यागराज के वसन्तोत्सव में अभिनीत । किया गया है। रस के अंग, नायक के लक्षण एवं गुणभेद, इसमें विट है रसिकशेखर और नायिका है कनकमंजरी । नायक के साहाय्यक एवं उनके गुण, नायिकाएं एवं उनके रसिक-प्रकाश - ले.- देवनाथ तर्कपंचानन । ई. 17 वीं शती। लक्षण, परिभाषा, भेद, गुण, नायिका, की सहायिकाएं एवं विषय- साहित्यशास्त्र। उनके भेद, एवं गुण, चतुर्विध अलंकार, उद्दीपक दश चित्तज भाव, रीति के लक्षण एवं भेद आदि विषय निरूपित हैं। रसिकबोधिनी - ले.- कामराज दीक्षित। पिता- वैद्यनाथ । वृत्ति-उत्पत्ति तथा भेद-प्रवृत्तियां एवं उनके भेद तथा सात्त्विक रसिकभूषण - ले.- म.म. गणपतिशास्त्री। वेदान्तकेसरी । भाव आदि सोदाहरण विवेचित किये गये हैं। रसिकभूषणम् (भाण) - ले.- उदयवर्मा । ई. 19 वीं शती। द्वितीय विलास में सर्वप्रथम संचारी भाव के विषय में 35 रसिकरंजनम् - ले.-वैद्यनाथ। (2) भाण- ले.- श्रीनिवास । भेद सहित निरूपण किया गया है। व्याभिचारि-भाव की ई. 19 वीं शती। विविधता, उनकी 4 दशाएं, स्थायी के लक्षण, भेद उदाहरण। रसिकविनोद (त्रोटक) - ले.- कमलाकरभट्ट। कालोल स्थायी भावों के विषय में सोड्ढलतनय (शाङ्गधर), भरत,भोज, (गुजरात निवासी) ई. 17 वीं शती। विषय- वल्लभाचार्य के भावप्रकाशकार आदि के मत वर्णित है। श्रृंगार रस की पौत्र गोकुलेश की वैष्णवी विचारधारा का प्रतिपादन। प्रस्तुत अग्रगण्यता का उल्लेख करते हुए श्रृंगार के भेद, विप्रलंभ रूपक में गोकुलेशजी के जीवन के अनेक प्रसंग उल्लिखित के भेद, रागादि का निरूपण, मान के भेद तथा हास्यादि रसों हैं। उनकी गुर्जर देश यात्रा तथा सर्वभेदविरहित वृत्ति का का सांगोपांग सोदाहरण विवेचन करने के पश्चात् रसाभास का 'परिचय इस में मिलता है। गीता-भागवत तथा गोकुलेश के भी विवेचन किया गया है। ग्रंथों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत रूपक' में दिखाई देता है। तृतीय विलास में नाट्य-रूपक की निष्पत्ति करते हुए नाट्य रसेंद्रचिंतामणि - ले.- ढुण्ढिनाथ। गुरु- कालनाथ। आयुर्वेद के भेद, इतिवृत्ति स्वरूप, त्रिविधता तथा पंचविधता वर्णित हैं। शास्त्र का ग्रंथ। ई. 13-14 वीं शती। यह रस-शास्त्र का पंच संधि एवं संधियों का निरूपण संध्यन्तर सहित किया गया अत्यधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। लेखक के कथनानुसार इस ग्रंथ है। रूपकों में नाटक की प्रधानता, प्रस्तावना, नांदी, भारती, की रचना अनुभव के आधार पर हुई है। इस ग्रंथ का प्ररोचना, आमुख, वीथ्यंग, सूचकों के भेद आदि का सविस्तर प्रकाशन रायगढ़ से संवत् 1991 में हुआ था जिसे वैद्य संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 295 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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