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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व रस- तरंगिणी' नामक दोनो ही ग्रंथों में श्रृंगार का रसराजत्व स्वीकार करते हुए अन्य रसों का उसी में अंतर्भाव किया है। उन्होंने रस को काव्य की आत्मा माना है । भानुदत्त ने रस के अनुकूल विकार को भाव कहा है और इन्हें रस का हेतु भी माना है। उन्होंने रस के दो प्रकार माने हैं लौकिक व अलौकिक । लौकिक रस के अंतर्गत शृंगारदि रसों का वर्णन है, और अलौकिक के तीन भेद किये गए हैं- स्वामिक, मानोरथिक तथा औपनायिक। रसमंजरी के टीकाकार (1) महादेव (2) रंगशायी (3) अनंत पण्डित ( 4 ) नागेशभट्ट (5) गोपाल या बोपदेव (6) शेषचिन्तामणि (7) गोपालभट्ट (8) अनन्तशर्मा ( 9 ) व्रजराज, (10) विश्वेश्वर ( 11 ) अज्ञात लेखक । 2) ले. भरतचंद्र राय। ई. 18 वीं शती । रसमंजरी (गद्य प्रबंध) ले. कृष्णदेवराय । रसमंजरी ले. - पूर्णसरस्वती । ई. 14 वीं शती (पूर्वार्ध) | भवभूति के मालती माधव प्रकरण पर टीका । रसमंजरी (टीका) - ले. विश्वेश्वर पाण्डेय । पाटिया (अलमोडा जिला ) ग्राम के निवासी ई. 18 वीं शती (पूर्वार्ध) भानुदत कृत रसतरंगिणी की टीका । 2) ले व्रजराज । रसमंजरीपरिमल - - www.kobatirth.org ले. - चिन्तामणि । - 294 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड इसमें यत्र तत्र तांत्रिक योग का भी वर्णन है । " रस - रत्नाकर " मुख्यतः शोधन, मारण आदि रसायन विद्या के विषयों से पूर्ण है और इसके आरंभ में ज्वरादि की चिकित्सा भी वर्णित है। रसरत्नाकर (या रसेंद्रमंगलम् ) ले. नागार्जुन । ई. 7-8 वीं शती। आयुर्वेदीय रसविद्या का प्राचीनतम ग्रंथ । इसका प्रकाशन 1924 ई. में श्रीजीवराम कालिदास ने गोंडल से किया है। इस ग्रंथ में 8 अध्याय थे किंतु उपलब्ध ग्रंथ खंडित है जिसमें 4 ही अध्याय हैं। इस ग्रंथ का संबंध महायान संप्रदाय से है, और इसका प्रतिपाद्य विषय- "रसायन योग" है। नागार्जुन ने रासायनिक विधियों का वर्णन संवाद शैली में किया है जिसमें नागार्जुन मांडव्य, वटयक्षिणी, शालिवाहन तथा रत्नघोष ने भाग लिया है। ग्रंथ में विविध प्रकार के रसायनों की शोधन - विधि प्रस्तुत की गई है जैसेराजावर्त शोधन, गंधक शोधन, दरद शोधन, माक्षिक से ताम्र बनाना तथा माक्षिक एवं ताप्य से ताम्र की प्राप्ति । पारद व स्वर्ण के योग से दिव्य शरीर प्राप्त करने की विधि भी इसमें दी गई है। रसरत्नाकर (भाण) ले. जयन्त। ई. 19 वीं शती । रसरत्नावली ले. वीरेश्वर पण्डित। ई. 18 वीं शती । रसवतीशतकम् - ले. धरणीधर । शक्तिरूप रसवती के प्रति इसमें 119 श्लोक कहे गये हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसवती ले. जुमरनन्दी । क्रमदीश्वर लिखित संक्षिप्तसारव्याकरण पर वृत्ति । रसमय - रासमणि ले. डॉ. रमा चौधुरी। विषय- अंग्रेजों द्वारा पीडित प्रजा की साहसपूर्वक रक्षा करने वाली विधवा रानी रासमणि का चरित्र । बारह दृश्यों में विभाजित । ले. दाजी शिवाजी प्रधान । रसमाधव - रसरत्नम् ले. म.म.राखालदास न्यायरत्न । मृत्यु - 1921 रसरत्नसमुच्चय रससदनम् (भाण) ले. वाग्भट । पिता सिंहगुप्त। ई. 13 वीं ले. - गोदवर्मा । ई. 18 वीं शती। शती । यह रसायन शास्त्र का अत्यंत उपयोगी एवं विशाल काव्यमाला संख्या 37 में प्रकाशित लोकोक्तियों से भरपूर 1 ग्रंथ है। रसोत्पत्ति, महारसों का शोधन उपरस, साधारण रसों नायक विट की चन्दनलता, मंजुलानना, शृंगारलता, उसकी का शोधन आदि विषय, ग्रंथ के प्रारंभिक 11 अध्यायों में बहन विस्मयलता, इ. वारवनिताओं के साथ केलिक्रीडाएं, वर्णित हैं तथा शेष अध्यायों में ज्वरादि रोगों का वर्णन है । वेश्याओं के स्वभाव का चित्रण कर लोगों को सावधान करने इसमें रसशाला के निर्माण का भी निर्देश है तथा कतिपय हेतु वर्णन की है। अर्वाचीन रोगों का भी वर्णन इसमें है। इसमें खनिजों (रसायनशास्त्र संबंधी) को 5 भागों में विभक्त किया गया है : रस, उपरस, साधारण रस, रत्न तथा लोह । इसका हिन्दी अनुवाद आचार्य अंबिकादत्त शास्त्री ने किया है। रस-रत्नाकर ले. नित्यनाथ सिद्ध । ई. 13 वीं शती । पिताशंखगुप्त माता पार्वती आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रंथ। यह रस शास्त्र का विशालकाय ग्रंथ है जिसमें 5 खंड हैं रस खंड रसेंद्र खंड, वादि खंड, रसायन खंड, एवं मंत्र- खंड इसके सभी खंड प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में औषधि योग का भी वर्णन है पर रसयोग पर विशेष बल दिया गया है । - रसविलास (भाण ) - ले. चोक्कनाथ । ई. 17 वीं शती । 2) प्रबन्ध) ले. भूदेव शुक्ल । गुजरात के निवासी। ई. 17 वीं शती । For Private and Personal Use Only - - 1 - रससर्वस्वम् -कवि- विट्ठल । रससारामृतम् ले. रामसेन विषय वैद्यकीय रसायनशास्त्र । (2) ले भिक्षु गोविंद भगवत् श्रीपाद । ई. 11 वीं शती । आयुर्वेद शास्त्र का यह ग्रंथ रस - शास्त्र का सुव्यवस्थित विवेचन करता है। इसके अध्यायों की (संज्ञा अवबोध) संख्या 19 है। प्रथम अवबोध में रसप्रशंसा, द्वितीय में पारद के 18 संस्कारों के नाम तथा स्वेदन, मर्दन, मूर्छन उत्थापन, पातन, रोधन, नियमन व दीपन आदि संस्कारों की विधि वर्णित है। तृतीय व चतुर्थ अवबोध में अभ्रकग्रास की प्रक्रिया एवं अभ्रक के भेद और अभ्रक - सत्त्वपातन का विधान है। पंचम अवबोध
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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