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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra योगतारावली (स्तोत्र ) ले. श्रीशंकराचार्य । श्लोक- 291 विषय- आध्यात्मिक दृष्टि से योगक्रियाओं का वर्णन योगध्यानम् ले भूपति संसारचन्द्र । योगनिर्णय ले. ज्ञानश्री बौद्धाचार्य ई. 14 वीं शती । । योगबिन्दु - ले. - हरिभद्रसूरि । ई. 8 वीं शती । 1 योगबीजम् - शिव-पार्वती संवादरूप। श्लोक - लगभग 150 | विषय- शाक्त सम्प्रदायानुसारी योग का प्रतिपादन | योगमार्तण्ड- ले. गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) ई. 11-12 वीं शती । योगरत्रमाला (सटीक) ले. नागार्जुन श्लोक 480 - www.kobatirth.org - टीकाकार गुणाकार । योगरत्नाकर आयुर्वेद शास्त्र का ग्रंथ। यह ग्रंथ किसी अज्ञात लेखक की रचना है, और यह 1746 ई. के आसपास लिखा गया है। इसका एक प्राचीन हस्तलेख 1668 शकाब्द का प्राप्त होता है । इस ग्रंथ का प्रचार महाराष्ट्र में अधिक है। इसमें रोग परीक्षा, द्रव्यगुण, निबंटु तथा रोगों के वर्णन के साथ ही लोलिंबराज कृत "वैद्यजीवन" की भांति श्रृंगारी पदों का भी बाहुल्य है। इसके पूर्व अन्य किसी भी ग्रंथ में इस विषय का निरूपण नहीं किया गया है। इसके कर्ता ने भी इस तथ्य का स्पष्टीकरण अपने ग्रंथ में किया है। इस ग्रंथ का प्रकाशन विद्योतिनी (हिन्दी टीका) के सहित चौरबा विद्याभवन से हो चुका है। योगरत्नावली ले. श्रीकण्ठ शम्भु परिच्छेद 10 प्रारंभिक दो परिच्छेदों में बहुत सी ऐन्द्रजालिक क्रियाएं वर्णित हैं। तीसरे में त्रिपुरानित्यार्चननिधि तथा चौथे परिच्छेद में अभिषेक विधि आदि विषय वर्णित हैं । योगरहस्यम् ले नाथमनि। ई. ले. - नाथमुनि । ई. 9 वीं शती । दक्षिण भारत के वैष्णव आचार्य। इन्होंने न्यायतत्त्व और पुरुषनिश्चय नामक अन्य ग्रंथ भी लिखे हैं । योगवार्तिकम् - ले.- विश्वास भिक्षु । ई. 14 वीं शती । काशी निवासी । - योगयात्रा - ले. - वराहमिहिर । विषय- ज्योतिष शास्त्र । इस ग्रंथ में राजाओं के युद्ध का ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। ग्रंथ की शैली प्रभावशाली एवं कवित्वमयी है। योगराज उपनिषद् केवल 21 मंत्रों का एक नव्य उपनिषद् । इसमें मंत्र, लय, राज और हठ इन चार योगों का प्रतिपादन करते हुए मंत्र योग को महत्त्व दिया है। शरीरस्थ नव चक्रों पर ध्यान करने से योगसिद्धि की प्राप्ति भी इसमें सूचित की है। योगवासिष्ठम् - ( अपरनाम- आर्षरामायण, वसिष्ठमहारामायण, और मोक्षोपायसंहिता) इस ग्रंथ के रचयिता के संबंध में मतभेद है परंपरानुसार आदिकवि वाल्मीकि इसके रचयिता माने जाते हैं परंतु इसमें बौद्धों के विज्ञानवादी, शून्यवादी, माध्यमिक इत्यादि मतों का तथा काश्मीरी शैव, त्रिक, प्रत्यभिज्ञा 286 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड तथा स्पंद इत्यादि तत्त्वज्ञानों का निर्देश होने के कारण इसके रचयिता उसी (वाल्मीकि) नाम के अन्य कवि माने जाते हैं। योगवासिष्ठ की श्लोकसंख्या 32 हजार है। विद्वानों के मतानुसार महाभारत के समान इसका भी तीन अवस्थाओं में विकास हुआ- (1) वसिष्ठकवच, मोक्षोपाय (2) ( अथवा सिष्ठ-रामसंवाद) (3) वसिष्ठरामायण (या बृहद्योगवासिष्ठ) । यह तीसरी पूर्णावस्था ई. 11-12 वीं शती में पूर्ण मानी जाती है। गौड अभिनंद नामक पंडित ने ई. 9 वीं शती में किया हुआ इसका "लघुयोगवसिष्ठ" नामक संक्षेप छह हजार श्लोकों का है। योगवसिष्ठसार नामक दूसरा संक्षेप 225 श्लोकों का है। योगवसिष्ठ ग्रंथ छह प्रकरणों में पूर्ण है। प्रथम प्रकरण का नाम वैराग्य प्रकरण है। इसमें उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचंद्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए । अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचंद्रजी विरक्त हुए। महाराजा दशरथ की सभा में वे कहते हैं। किं श्रिया, किं च राज्येन, किं कायेन, किमीहया । दिनैः कतिपयैरेव कालः सर्वं निकृन्तति । । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में काल इन सब का नाश करने वाला है। अपनी मनोव्यथा का निवारण करने की प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र को की। दूसरे मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वसिष्ठ ऋषि ने उपदेश दिया है। 3-4 और 5 वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय की उपपत्ति वर्णन की है। इन प्रकरणों में अनेक दृष्टान्तात्मक आख्यान और उपाख्यान निवेदन किये हैं। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजन किया है। इसमें संसारचक्र में फंसे हुए जीवात्मा को निर्वाण अर्थात् निरतिशय आनंद की प्राप्ति का उपाय निवेदन किया है। इस महान ग्रंथ में विषयों एवं विचारों की पुनरुक्ति के कारण रोचकता कम हुई है। परंतु अध्यात्मज्ञान सुबोध, तथा काव्यात्मक शैली में सर्वत्र प्रतिपादन किया है। बोगशिखोपनिषद् - शिव हिरण्यगर्भ संवादात्मक एक नव्य उपनिषद् इसके छह अध्यायों में योग के छह प्रकार, नादानुसंधान, जगन्मिथ्यात्व देहस्थ चक्रस्थान, कुंडलिनी योग इत्यादि विषयों का यथोचित प्रतिपादन हुआ है। इसी नाम का अन्य एक ग्रंथ है जो यजुर्वेद तथा अथर्ववेद से संबंधित कहा गया है। उसका विषय है- ध्यानयोग । योगसागर शुक्र- भृगु संवादरूप। विषय- मुख्य रूप से 50 योगों का वर्णन भवयोग, सौम्ययोग, यातुधान्य-योग, भीष्मयोग, जीमूतयोग, जवयोग, आदि योगों और उनके फलों का प्रतिपादन इसमें है। योगसार शिव-पार्वती संवादरूप । परिच्छेद-9 । विषयशिवजी के प्रति देवी का ब्रह्मस्वरूप कथन, ब्रह्म की योगगम्यता, For Private and Personal Use Only -
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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