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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तथा दूसरे में ब्रह्म का स्वभाव एवं विश्व से उसका संबंध वर्णित है। तृतीय अध्याय में ब्रह्मज्ञान के साधनों का निरूपण है। इसमें मनुष्यों को जानने योग्य दो विद्याओं का (परा और अपरा) उल्लेख है। जिसके द्वारा अक्षरब्रह्म का ज्ञान हो वह है परा विद्या, तथा चारों वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, ज्योतिष आदि छह वेदांग, अपरा विद्या है। अक्षरब्रह्म से ही विश्व की सृष्टि होती है। जिस प्रकार मकडी जाल बनाती है और उसे निगल जाती है, अथवा जिस प्रकार जीवित मनुष्य के लोम व केश उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार अक्षरब्रह्म से इस विश्व की सृष्टि होती है। ( 1-1-7) इस उपनिषद् में जीव और ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन दो पक्षियों के रूपक द्वारा किया गया है। एक साथ रहने वाले व परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा व परमात्मा), एक ही वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर निवास करते हैं। उनमें से एक (जीव) उस वृक्ष के फल का स्वाद लेकर उसका उपभोग करता है, और दूसरा भोग न करता हुआ उसे केवल देखता है। यहां जीव को शरीर के कर्मफल का उपभोग करते हुए चित्रित किया गया है, और ब्रह्म, साक्षी के रूप से उसे देखते हुए, वर्णित है। मुदितमदालसा (नाटिका) ले. गोकुलनाथ ई. 17 वीं शती विषय विश्वावसु की कन्या मदालसा का कुवलयाश्व के साथ विवाह | www.kobatirth.org - 18 मुद्गरदूतम् - • ले.- म. म. रामावतार शर्मा। काशी में प्रकाशित । मुद्गल (ऋग्वेद की शाखा) ले. इस शाखा की संहिता, ब्राह्मण सूत्र आदि अभी तक अप्राप्त हैं। प्रपंचहृदय नामक ग्रंथ के लिखे जाने के काल तक यह शाखा विद्यामान थी । मुद्गल के पिता थे भूम्यश्व । मुद्गलस्मृति ले. मुद्गलाचार्य विषय दाय, अशौच, प्रायश्चित्त इ । - मुद्राप्रकरणम् ले. कृष्णानन्द । तंत्रसार का मुद्रा प्रकरण इसमें निर्दिष्ट है। श्लोक 192 मुद्राओं से देवताओं की प्रसन्नता होती है एवं पापराशि नष्ट होती है। इसलिये मुद्रा सर्वकर्मसाधिका कही गई है। विषय- पूजा, जप, ध्यान, आवाहन आदि में मुद्रा आवश्यक है। "मुद्रा" की निरुक्ति यों की है मोदनात् सर्वदेवानां द्रावणात्पापसन्ततेः। तस्मान्मुद्रेति सा ख्याता सर्वकर्मार्थसाधिनी ।।" मुद्राओं के लक्षण और विनियोग के साथ अंकुश, कुग्भ, अग्निप्राकार, मालिनी, धेनु, शंख, योनि, मत्स्य, आवाहनादि विविध मुद्राएं प्रतिपादित हैं। मुद्राप्रकाश ले. श्रीरामकिशोर । ई. 18 वीं शती। साधारण मुद्राओं के निर्णय के साथ साथ उमेशमुद्रा, उपेन्द्रमुद्रा, गजाननमुद्रा, शक्तिमुद्रा इ. मुद्राओं का निर्णय भी इसमें किया गया है। परिच्छेद 6। श्लोक- 405 विषय मुद्रा शब्द की निरुक्ति-पूर्वक मुद्राओं के प्रमाण, लक्षण इ.का प्रतिपादन । - मुद्राराक्षसम् (नाटक) निरुक्त, अंकुश, कुन्त, तत्त्व, कालकर्णी, वासुदेवाख्या, सौभाग्यदण्डिनी, रिपुजिह्वासना, कूर्म, त्रिखण्डा, शालिनी, मत्स्यमुद्रा, आवाहनी, आदि बहुत-सी मुद्राएं इसमें प्रतिपादित हैं। ले. महाकवि विशाखदत्त । यह संस्कृत साहित्य में सुप्रसिद्ध राजनीतिक तथा ऐतिहासिक नाटक है। इस में 7 अंक हैं, और प्रतिपाद्य है चाणक्य द्वारा नंद सम्राट् के विश्वस्त व भक्त अमात्य राक्षस को परास्त कर चंद्रगुप्त का विश्वासभाजन बनाना। इसमें कथानक का मूलाधार है नंद वंश का विनाश, मौर्य साम्राज्य की स्थापना तथा चाणक्य के विरोधियों का नाश तथा चंद्रगुप्त के मार्ग को प्रशस्त करना। नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार द्वारा चंद्रग्रहण का कथन किया गया है, और पर्दे के पीछे चाणक्य की गर्जना सुनाई पडती है कि उसके रहते चंद्रगुप्त को कौन पराजित कर सकेगा। संक्षिप्त कथा :- प्रथम अंक :चाणक्य अपने गुप्तचर निपुणक से राक्षक की अंगूठी प्राप्त करता है, तथा राक्षक के तीन सहायक व्यक्तियों (जीवसिद्धि क्षपणक, शकटदास और चन्दनदास) के बारे में जानकारी प्राप्त करता है। चाणक्य शकटदास से कपट लेख लिखवाता है, चन्दनदास के द्वारा राक्षस का परिवार न सौंपने पर उसे कैदखाने में डलवा देता है, और शकटदास को मृत्युदण्ड देता है। चाणक्य का सेवक सिद्धार्थक, शकटदास को वधस्थल से भगा ले जाता है। द्वितीय अंक :- गुप्तचर विराधगुप्त से राक्षस को ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने पर्वतक को मरवाया है । शकटदास को लेकर सिद्धार्थक राक्षस के पास आता है। उसे राक्षस मित्र का रक्षक मानकर विश्वास पात्र समझता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I तृतीय अंक चंद्रगुप्त की आज्ञा से मनाये जा रहे कौमुदी उत्सव को चाणक्य द्वारा बंद करवाने पर दोनों में कृतक कलह होता है। चतुर्थ अंक :- करभक, चाणक्य और चंद्रगुप्त के कृत्रिम कलह के बारे में राक्षस को बताता है। भागुरायण के कहने से मलयकेतु राक्षस को चन्द्रगुप्त के अमात्यपद के लिए इच्छुक मानने लगता है। पंचम अंक आभरण-पेटिका और राक्षस का मुहरयुक्त पत्र (जो चाणक्य ने लिखवाया था) लेकर आते हुए सिद्धार्थक को मलयकेतु कुसुमपुर जाने से रोकता है, और आभूषण पेटी से अपने पिता पर्वतक के आभूषण एवं राक्षस के पत्र से राक्षस को ही पर्वतक का हत्यारा मान कर राक्षस के सहायक पांच राजाओं को मरवा देता है। यह जानकर राक्षक चंदनदास की मुक्ति का उपाय सोचता है। षष्ठ अंक चाणक्य के गुप्तचर से चन्दनदास को फांसी देने की बात सुनकर, राक्षस उसे बचाने वध-भूमि पर जाता है। सप्तम अंक राक्षस के मिल जाने पर चाणक्य उसे चंद्रगुप्त के अमात्य के पद पर प्रतिष्ठित करता है । मुद्राराक्षस में अर्थोपक्षेपकों की संख्या 4 है जिनमें 2 प्रवेशक, 1 मूलिका और 1 अंकाश्य है इस For Private and Personal Use Only - - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 273 -
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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