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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्लोकसंख्या 36 हजार याने श्रीमद्भागवत से दुगुनी है। इस कृष्ण के समान ही राम प्रमोदवन में "राम-लीला' की रामायण की निर्मिति का क्षेत्र उत्तर भारत विशेष कर काशी रचना करते हैं। 31 वें अध्याय में श्रीराम के रास का उपक्रम के आसपास का विस्तृत भू-खंड है। इसकी विशेषता यह है ठीक भागवत जैसा ही है, जिसके अंत में सखियों के साथ कि इस रामायण में कृष्ण कथा को आदर्श मान कर राम क्रीडा करते श्रीराम अंतर्हित हो जाते हैं। 35 वें अध्याय में कथा का निरूपण किया गया है। वस्तुतः इसे रामायण का भागवत की गोपियों के समान राम की लीलाओं का अनुकरण भागवतीकरण कहा जाना उचित होगा, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण तथा वृक्षों से राम के विषय में मनोरम प्रश्न किये गये हैं, की समस्त ललित लीलाएं इसमें भगवान् श्रीराम पर आरोपित जो भागवत की अपेक्षा विस्तृत तथा आवर्जक हैकर दी गई हैं। भुवनसंतत-तापहरं जनपापहरं कमलासदनम्। श्रीराम के रूप का निरूपण करते हुए प्रस्तुत रामायण में चरणाब्जं कुरु वक्षसि नः शमय स्मरदुर्जय-बाणरुजम्।। कहा गया है- राम ही पूर्ण परात्पर ब्रह्म है। बलराम एवं इसके अनंतर 35 तथा 36 वें अध्याय में राम की रास कृष्ण, राम के ही आंशिक स्वरूप हैं। भागवत में कृष्ण की लीला का विस्तृत वर्णन है जिसमें रासस्थित राम की रुचिर वंदना हैभगवत्ता का प्रतिपादक प्रख्यात वचन है: मंदस्मिताधरसुधारस-रंजितोष्ठं लोकालकावलित-मुग्धकपोलवेशम्। एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्। पादांबुजप्रथित-तालविधाननृत्यं यही पद्य, प्रस्तुत भुशुण्डि रामायण में इस प्रकार है रासस्थितं रघुपतिं सततं भजामः ।। एते चांशकलाश्चैव रामस्तु भगवान् स्वयम् इस प्रकार प्रस्तुत भुशुण्डि-रामायण, राम की माधुर्य रसामृत इस प्रकार "न रामात् परतस्तत्त्वं वेदैरपि विचीयते"। मूर्ति की उपासना का तथा सीता-राम की संश्लिष्ट चिंतना का "अवतारी स्वयं रामः ।।" इत्यादि। एक अद्भुत ग्रंथ है। इसमें राम कथा का विस्तार तथा प्रस्तुत रामायण में परात्पर ब्रह्म स्वरूप राम के दो रूप विवेचन भी अन्य प्रकार से किया गया है। अनोखा होने पर निर्दिष्ट हैं - पर रूप तो उनके स्वधाम (सीतालोक) में निवास यह एक रमणीय रससिक्त ग्रंथ है। भुशुण्डि रामायण का करता है और 2) द्वितीय (अपर) रूप चिल्लोक में निवास " आदर्श उपजीव्य ग्रंथ श्रीमद्भागवत है। अतः उसी को आधार करता है, जिसका नाम अयोध्या। (सीतालोकः परं स्थानं मान कर राम की ललित लीलाएं इस रामायण में चित्रित की चिन्मयानंदलक्षणम्। कोसलाख्यं पुरं नित्यं चिल्लोक इति गई हैं। मध्य युग की तांत्रिक पूजा का प्रभाव भी इस ग्रंथ कीर्तितम्।। पर स्पष्टतः दिखाई देता है। इसलिये इसे मध्य युग के बाद की कृति मानना होगा, किन्तु मानसकार गोस्वामी तुलसीदासजी राम की सहजा शक्ति है सीता। आनंद उनका रूप है, से यह पूर्ववर्ती होनी चाहिये, क्योंकि तुलसीदासजी के रामचरित सहजानंदिनी रूप है राधा। रुक्मिणी आदि उसी के विभिन्न मानस पर इसकी अमिट छाप है। प्रस्तुत भुशुण्डि रामायण स्वरूप हैं। के प्रणेता ने इतने अद्भुत व प्रभावशाली ग्रंथ का प्रणयन या ते शक्तिः सहजानंदिनीयं । करके भी स्वयं को पूर्णतः छिपाए रखा है, क्योंकि उनके नाम सीतेति नाम्नी जगतां शोकहन्त्री। का संकेत तक पूरे ग्रंथ में कहीं पर भी नहीं मिलता। तस्या अंशा एव ते सत्यभामा साहित्य दृष्टि से यह रामायण अत्यधिक आकर्षक, सरस -राधारुक्मिण्यादयः कृष्णदाराः ।। शैली में निबद्ध तथा अलंकार चमत्कार से पूर्णतः परिपुष्ट है। राम और सीता मिलकर एक ही स्वरूप है, उसमें कोई इसी प्रकार के रसिक संप्रदायी संस्कृत ग्रंथों को अपना उपजीव्य भिन्नता नहीं है। मानकर, हिन्दी में अनेक प्रौढ रचनाओं का सृजन हुआ है। रामस्य चापि सीताया मिथस्तादात्म्यरूपकम्। भूताडामर-तंत्रम् - यह चतुःषष्टि (64) मूल तन्त्रों में अन्यतम यथा रामस्तथा सीता तथा श्रीः सहजा मता।। है। इसको तान्त्रिक निबन्धकारों ने अपने निबन्धों में बहुधा प्रस्तुत रामायण मे राम पर, कृष्ण के स्वरूप का तथा उद्धृत किया है, किन्तु इसकी पूर्ण हस्तलिखित प्रति अतिदुर्लभ लीलाओं का जिस प्रकार पूरा आरोप किया गया है उसी है। उपलब्ध प्रति में केवल 14 पटल हैं। अतः यह सर्वथा प्रकार सरयू पर यमुना एवं यमुना-तीरस्थ वृंदावन, सरयूतीरस्थ अपूर्ण है। श्लोक 512। विषय- भूतडामर का विवरण, मारण, प्रमोदवन पर आरोपित है। राम अपनी सहजा शक्ति सीता से मन्त्रों का प्रतिपादन, पिशाचीसाधन, कात्यायनी मन्त्रसाधन, साथ वैकुण्ठ लोक में रमण किया करते हैं। वैकुण्ठ दो सिद्धिसाधन, यक्षिणी, अष्टनागिनी, किन्नरी अपराजिता आदि का प्रकारण का है। वैकुण्ठ से भी परे "सीता-वैकुण्ठ" है। वहां सिद्धिसाधन इत्यादि। प्रमोदवन में ही राम-वैकुण्ठ है। भूतभैरवम् (या भूततन्त्रम्) - ले.-परमहंस पारिव्राजक 242 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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