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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं। इसमें सूर्यपूजा का वर्णन है और उसके संबंध में एक या गीता रूढ हुआ। इस संक्षिप्त रूप में उपनिषद् शब्द कथा दी गई है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को अध्याहृत है। यदि मूल में उपनिषद् शब्द नहीं होता, तो ग्रंथ कुष्ठ रोग हो जाने पर उसकी चिकित्सा के लिये गरुड द्वारा का नाम केवल भगवद्गीतम् या गीतम् (नपुंसकलिंगी ) शकद्वीप से ब्राह्मणों को बुलाकर सूर्य की उपासना के द्वारा होता। इस विश्वमान्य ग्रंथ में कृष्ण-अर्जुन संवाद में कर्मयोग, रोगमुक्त कराया गया था। इस कथा में भोजक व मग नामक भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग का प्रधानतया प्रतिपादन किया दो सूर्य पूजकों का उल्लेख किया गया है। अलबेरुनी ने गया है। सभी वैदिक मतावलंबी आचार्यों ने इसपर भाष्य इसका उल्लेख किया है। इस आधार पर विद्वानों ने इसका लिखे हैं और संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में इस के समय 10 वीं शती माना है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति के साथ अनुवाद हुए हैं। ही साथ भौगोलिक वर्णन भी उपलब्ध होते हैं तथा सूर्य का भागवतम् - ले.-मुडूम्बी वेंकटराम नरसिंहाचार्य। ब्रह्म रूप में वर्णन कर उनकी अर्चना के निमित्त नाना प्रकार भागवत-गूढार्थदीपिका (टीकाग्रंथ)- ले.-धनपतिसूरि। ई. के रंगों के फूलों को चढ़ाने का कथन किया गया है। इस 17-18 वीं शती। रास-पंचाध्यायी एवं भ्रमरगीत (10-47) पुराण में उपासना व व्रतों का विधान, त्याज्य पदार्थों का की टीका। अष्टटीका-भागवत वाले संस्करण में प्रकाशित । रहस्य, वेदाध्ययन की विधि, गायत्री का महत्त्व, संध्यावंदन भागवत के गूढ अर्थों का प्रकटीकरण करना है प्रस्तुत टीका का समय तथा चतुर्वर्ण विवाह व्यवस्था का भी निरूपण है। का उद्देश्य । यह टीका विस्तृत, विशद तथा विविधार्थ प्रतिपादक इस पुराण में कलियुग के अनेकानेक राजाओं का वर्णन है, है। इसमें आकर ग्रंथों के संकेत एवं उद्धरण भी हैं। इस जो महारानी विक्टोरिया तक आ जाता है। इस पुराण के टीका में श्रीधर स्वामी का यह मत स्वीकृत है कि रासपंचाध्यायी प्रतिसर्ग पर्व की बहुत सी कथाओं को आधुनिक विद्वान् प्रक्षेप निवृत्तिमार्ग का उपदेश देती है, प्रवृत्तिमार्ग का नहीं। प्रस्तुत मानते हैं। इसके भविष्य कथन भी अविश्वसनीय माने जाते हैं। टीका पांडित्यपूर्ण तथा प्रमेय बहुल है। पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र के कथनानुसार चार प्रकार के भविष्यपुराण उपलब्ध हैं तथा प्रत्येक में भविष्यपुराण के थोडे भागवतचंद्रचंद्रिका - ले.-वीरराघवाचार्य। ई. 16 वीं शती। थोडे लक्षण पाये जाते हैं। सूत्रकार आपस्तंब द्वारा भविष्य श्रीमद्भागवत की टीका। भागवत की यह बडी विस्तृत व पुराण का उल्लेख हुआ है जिससे यह निश्चित है कि इसका विशालकाय व्याख्या है। इसका उद्देश्य है विशिष्टाद्वैती सिद्धान्तों कुछ अंश प्राचीन है जो ब्राह्म सर्ग के अंतर्गत आता है। का भागवत से समर्थन तथा पुष्टीकरण। इस उद्देश्य की सिद्धि इसमें उल्लेखित अनेक घटनाओं तथा राजवंशों के वर्णन में टीकाकार ने श्रीधरस्वामी के मत का बहुशः खण्डन किया इतिहास की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं। है। "आत्मा नित्योऽव्ययः" (भाग 7-7-19) के अद्वैतपरक भस्मजाबालोपनिषद् - अथर्ववेद से संबंद्ध एक नव्य उपनिषद्।। अर्थ की विशिष्टाद्वैती व्याख्या की है। इसी प्रकार 6-9-33 इसमें भगवान् शिव द्वारा भुशुंड को भस्मधारणविधि तथा उससे गद्यस्तुति की व्याख्या में, भगवन्नामों का अर्थ विशिष्टाद्वैत संबंधित व्रतों का कुथन दो अध्यायों में किया गया है। मतानुसारी किया है। भागवत 4-1-12-29 की व्याख्या में भगवद्गीता - व्यासरचित "महाभारत' महाकाव्य के अन्तर्गत श्रीधर के मत का खण्डन करते हुए स्वमत की प्रतिष्ठा की भीष्मपर्व में कृष्णार्जुन संवाद के रूप में भगवद्गीता का गुंफन है। सुदर्शनसूरि की लध्वक्षर टीका से असंतुष्ट होकर वीरराघव हुआ है। इसमें 18 अध्याय और कुल सात सौ श्लोक हैं। ने अपनी प्रस्तुत व्याख्या में दार्शनिक तत्त्वों का बहुशः विस्तार उपनिषदों और वेदान्तसूत्र के साथ भगवद्गीता को वैदिकधर्म किया है। इस टीका की प्रामाणिकता, संप्रदायानुशीलता एवं की व्याख्या करने वाला प्रमुख ग्रंथ मागा जाता है। इन तीनों प्रमेयबहुलता का यही प्रमाण है कि प्रस्तुत भागवतचंद्र-चन्द्रिका को 'प्रस्थानत्रयी" कहा जाता है। लोकमान्य तिलक के अनुसार के अनंतर किसी भी विशिष्टाद्वैती विद्वान् ने समस्त भागवत जिस स्वरूप में आज भगवद्गीता उपलब्ध है उसका प्रचलन पर टीका लिखने की आवश्यकता अनुभव नहीं की। ईसा के 5 सौ वर्ष पूर्व हुआ है। भागवतचंपू- ले.-अय्यल राजू रामभद्र (रामचंद्र (भद्र) या राजनाथ कवि) नियोगी ब्राह्मण। समय 16 वीं शती का भगवद्गीता का संपूर्ण नाम "श्रीमद्भगवद्गीता-उपनिषद्' मध्य। कवि ने श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध के आधार पर है। परन्तु संक्षेप करने की दृष्टि से उसके दो प्रथमान्त एकवचनी कंस-वध तक की घटनाओं का वर्णन किया है। शब्दों का प्रथम "भगवद्गीता" और आगे केवल “गीता" स्त्रीलिंगी अति संक्षिप्त रूप हुआ है। "श्रीमद्भगवद्गीता" 2) ले. चिदम्बर।। उपनिषद् का अर्थ है- भगवान् द्वारा गाया गया उपनिषद् । 3) ले. सोमशेखर (अपरनाम राजशेखर) पेरुर (जिल्हा उपनिषट संस्कत में मलिंगी रूप दसलिये जब ग्रंथ के गोदावरी) के निवासी। ई. 18 वीं शती। नाम का संक्षिप्त रूप हुआ तब वह भी स्त्रीलिंगी "भगवद्गीता" 4) ले. रामपाणिवाद। ई. 18 वीं शती । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/231 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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