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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथार्थ वर्णन कर सकते हैं। यज्ञकर्म के विधान तथा निंद्य कर्म के निषेध के साथ ही अर्थवाद भी ब्राह्मण ग्रंथों का प्रतिपाद्य है। शाबरभाष्य में ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषयों की संख्या दम्य बतलायी है: हेतुर्निर्वचनं नन्दा प्रशंसा संशयो विधिः। परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारणकल्पना । उपमानं दशैते तु विषया ब्राह्मणस्य हि ।। (जैमिनिसूत्र 2.1.8. भाष्य) अर्थ- हेतु शब्दों की निरुक्ति, कुछ कर्मों की निंदा, कुछ कर्मों की स्तुति, संशय, विधि, अन्यों द्वारा किये गये को का प्रतिपादन, पूर्व-कल्प की कथाएं, निश्चय तथा उपमान ये दस विषय ब्राह्मण ग्रंथों के प्रतिपाद्य हैं। ब्राह्मणों में सर्वप्रथम वेद मंत्रों का अर्थ तथा मंत्रों का कर्मों से संबंध बतलाने का प्रयास हुआ है। उदा. दीर्घ काल से रोगग्रस्त व्यक्ति के स्वास्थ्य- लाभ के लिये बतयाये गये यज्ञ में “आ नो मित्रावरुणा" ऋचा का सामगान (साम. 2.1.1.5.) विहित बताया है। यहां पर मंत्र में केवल मित्रवरुण की स्तुति है, इसलिये मंत्र के अर्थ का कर्म से संबंध नहीं है, तथापि तांड्य-ब्राह्मण में मंत्र-कर्म का संबंध इस प्रकार दिखाया गया है - मित्र और वरुण का प्राण और अपान से संबंध है। मित्र दिन के देवता तथा वरुण रात्रि के देवता हैं। इसलिये ये देवताएं रोगी के शरीर में निवास कर उसके प्राणापान का नियमन करें इसके लिये इस कर्म में मित्र-वरुण की प्रार्थना विहित है। प्राचीन शास्त्रकारों ने ब्राह्मणग्रंथों को वेद के समान मान्यता दी है। आपस्तंब ने मंत्र तथा ब्राह्मणग्रंथ को वेद संज्ञा दी है - "मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद-नामधेयम्" (आप. श्री. सू. 24.1.31.) वेद या वेद की शाखा के दोन भेद हैं- (1) मन्त्ररूप संहिता तथा (2) विधानरूप ब्राह्मण। ब्राह्मणों का भी अपौरुषेय ग्रंथों में समावेश हुआ है। ब्राह्मण के अन्तिम भाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद्' होते है। प्रत्येक ब्राह्मण अपने वेदसंहिता से संबंधित होता है। तथा ऋग्वेद की शाकल संहिता से सम्बद्ध है 'ऐतरेय ब्रह्मण', जिस में हौत्र-कर्म का तथा उससे सम्बद्ध संहिता में आयी ऋचाओं का विशेष विवरण या व्याख्यान है। इसी प्रकार अन्य वेदों की संहिताओं के ब्राह्मणों के विषय में कहा जा सकता है। ब्राह्मणों में मुख्यतः तीन भाग होते है:- 1) विधि या कर्मविधान, 2) अर्थवाद या प्ररोचन और 3) उपनिषद् या ब्रह्मविचार (तीर्थविचार) सामान्यतः वेदों की जितनी शाखाएं है उतने ही ब्राह्मण होने चाहिए। अर्थात् 1131 शाखाओं की संहिताएं है तो, ब्राह्मण भी उतने ही होने चाहिए। किन्तु सम्प्रति जिस प्रकार मात्र 11 संहिताए ही उपलब्ध है, उसी प्रकार ब्राह्मण भी 18 ही पाये जाते है। ब्राह्मणचिन्तामणितन्त्रम् - पटलसंख्या- 14 । ब्राह्मणमहासम्मेलनम् - सन् 1928 में ब्राह्मण महासम्मेलन कार्यालय, 177 दशाश्वमेघ घाट, वाराणसी से इसका प्रकाशन होता था। इसका वार्षिक मूल्य तीन रु. था। इसके सम्पादक मण्डल में महामहोपाध्याय अनन्तकृष्णशास्त्री, राजेश्वरशास्त्री द्रविड, ताराचरण भट्टाचार्य और जीव न्यायतीर्थ थे। यह ब्राह्मण महासम्मेलन की मुखपत्रिका थी। इसमें सभा का विवरण, भाषण, आय-व्यय और धर्म-प्रश्नों के उत्तर प्रकाशित होते थे। इसके हर अंक के मुख पृष्ठ पर यह श्लोक प्रकाशित हुआ करता न जातु कामान भयान्न लोभाद् धर्म जह्याज्जीवितस्याऽपि हेतोः । ब्राह्मणशब्दविचार - ले.- बेल्लमकोण्ड रामराय । आंध्रनिवासी। ब्राह्मणसर्वस्वम् - ले.- हलायुध। ई. 12 वीं शती। पिताधनंजय । सन् 1893 में कलकत्ता एवं वाराणसी में प्रकाशित । ब्राह्मस्फोटसिद्धान्त - (देखिए ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त)। भक्तभूषणसंदर्भ - ले.- भगवतत्प्रसाद । श्रीमद्भागवत की टीका। स्वामी नारायण मत (उध्दवसंप्रदाय) के अनुसार 19 वीं शती के मध्यकाल अर्थात् 1850 ई. के लगभत लिखी गई इस व्याख्या का प्रकाशन, 1867 ई. में हुआ। प्रकाशक हैं, मुंबई के गणपति कृष्णाजी। भागवत की यह भक्तरंजनी टीका, विस्तृत तथा सरल-सुबोध है। उध्दव संप्रदाय की दार्शनिक विचाराधारा श्रीकृष्ण वाक्यों से मिलती है। इस लिये प्रस्तुत टीका को विशिष्टाद्वैत-व्याख्याओं में परिगणित किया जाता है। भक्तवातसंतोषक- (नामांतर प्रयोगरत्नाकर) ले.- प्रेमनिधि पन्त। विषय - धर्मशास्त्र। भक्तसुदर्शनम्- (नाटक) ले.-मथुराप्रसाद दीक्षित। श. 20 । सोलव-नरेश की धर्मपत्नी को समर्पित। अंकसंख्या छः । गीतों की प्रचुरता और छोटे चटपटे संवाद इसकी विशेषता है। कथासार- अयोध्या नरेश ध्रुवसन्धि की मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र सुदर्शन उत्तराधिकारी हैं, परन्तु सापत्न बन्धु शत्रुजित् के नाना युधाजित् अपने पोते के लिए सिंहासन चाहते हैं। सुदर्शन के नाना वीरसेन उनसे लडते हैं। युद्ध में वीरसेन मारे जाते हैं। सुदर्शन की माता पुत्र को लेकर भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाती है। वहां सुदर्शन जगदम्बिका की उपासना में लीन होता है। यहां वाराणसी की राजकन्या शशिकला स्वप्न में सुदर्शन को देख कामपीडित होती है। उसके स्वयंवर के समय युद्ध में युधाजित् तथा शत्रुजित् मर जाते हैं और सुदर्शन शशिकला के साथ विवाह कर, माता तथा पत्नी के साथ सिंहासनारूढ होता है। भक्तामरपूजा - ले.- ज्ञानभूषण । जैनाचार्य । ई. 16 वीं शती । भक्तामरस्तोत्र - ले.- मानतुंगाचार्य। जैन स्तोत्र वाङ्मय में अत्यंत मान्यताप्राप्त इस स्तोत्र पर समस्या पूर्ति के रूप में आधारित स्तोत्रों में समयसुंदर कृत ऋषभभक्तामर (श्लो.45), संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड/227 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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