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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra | (मृण्मय) शिवलिंग की पूजनविधि प्रतिपादित है यह ग्रंथ किसी अज्ञात तन्त्र से संगृहीत है। श्लोक 340 1 पार्थिवार्चनचूडामणि ले. भूपालेन्द्र नवमीसिंह ग्रंथकार ने अपने गुरुजी का मत जानकर वैदिक, तान्त्रिक, कौलिक तथा वामक शिवपूजाविधि के विवेचनार्थ इस ग्रंथ का निर्माण सन 1715 में किया। पार्वणचन्द्रिका ले रत्नपाणि शर्मा। गंगोली संजीवेश्वर शर्मा के पुत्र । विषय- छन्दोग्य सम्प्रदाय के अनुसार विविध प्रकार के (विशेषतः पार्वण) श्राद्ध । ले. देवभट्ट । वाजसनेयी शाखीय - पार्वणचटश्राद्धप्रयोग ब्राह्मणों के लिये। - - पार्वणस्थालीपाकप्रयोग एक अंश । पार्वती कवि वा. आ. लाटकार। पार्वतीपरिणय- चम्पू ले कुन्दकूरी रामेश्वर । पार्वतीपरिणयम् ले. ईश्वरसुमति। " कुमारसम्भवम्” के समान आठ सर्ग युक्त महाकाव्य रचयिता - ईश्वरसुमति । पार्वतीस्वयंवर - ले. नारायण भट्टपाद । पार्श्वनाथकाव्यम् ले पद्मसुन्दर जैनाचार्य । पार्श्वनाथकाव्यपंजिका ले. शुभचन्द्र जैनाचार्य ई. 16-17 वीं शती । - चम्पू | 1 पार्श्वनाथचरितम् ले वादिराज सूरि उपाधि द्वादशविद्यापति जैनाचार्य । ई. 11 वीं श. पूर्वार्ध । पार्श्वनाथपुराणम् - ले. सकलकीर्ति जैनाचार्य । पिता - कर्णसिंह। माता - शोभा। ई. 14 वीं शती। 23 सर्ग । पार्श्वनाथपूजाले छत्रसेन समन्तभद्र के शिष्य ई. 8 वीं शती पार्श्वनाथस्तवनम् ले श्रुतसागरसूरि जैनाचार्य ई. 16 वीं । I - - www.kobatirth.org - - नारायण भट्ट के प्रयोगरत्न का शती । पार्श्वनाथस्तोत्रम् - ले. पद्मप्रभ मलधारिदेव। जैनाचार्य। ई. 12 वीं शती । पार्श्वपुराणम् (काव्य) - वादिचन्द्रसूरि । गुजरात निवासी। ई. 15 वीं शती । पार्श्वाभ्युदयम् (संदेशकाव्य) ले जिनसेनाचार्य गुरु वीरसेन। ई. 9 वीं शती । इस की रचना राष्ट्रकूटवंशीय अमोघवर्ष (प्रथम) के शासनकाल में हुई। इसमें कालिदास के मेघदूत की पंक्तियों की समस्यापूर्ति के रूप में पद्यरचना हुई है। कवि ने प्रत्येक श्लोक में दो पंक्तियां मेघदूत की ली हैं और दो पंक्तियां अपनी जोड़ी हैं। यह काव्य 4 सर्गो में विभक्त है, जिनमें क्रमशः 118, 118, 57 व 71 श्लोक हैं। चतुर्थ सर्ग के अंत में 5 श्लोक मालिनी छंद में हैं और छठा श्लोक वसंततिलका वृत्त में है। शेष सभी छंद मंदाक्रांता वृत्त में हैं। इस संदेश काव्य में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र वर्णित है पर समस्यापूर्ति के कारण कथानक शिथिल हो गया है। समस्यापूर्ति के रूप में लिखा होने पर भी यह काव्य कलात्मक भाव सौंदर्य की दृष्टि से उच्च कोटि का है । यत्र तत्र कालिदास के मूल भावों को सुंदर ढंग से पल्लवित किया गया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाशुपततन्त्रम् नन्दिकेश्वर-दधीचि संवादरूप। श्लोक-1700। विषय - शिव, स्कन्द, देवी प्रभृति अन्यान्य देवताओं की पृथक् पद्धति से पूजाविधि । पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् अथर्ववेद से संबध्द एक गद्यपद्यात्मक नव्य शैव उपनिषद् । वालखिल्य द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर स्वरूप ब्रह्माजी ने इस उपनिषद् का कथन किया है। इसके अंतिम 46 श्लोक अनुष्टुभ् छंद में हैं जिनके द्वारा वेदान्त के तत्त्व सरल भाषा में बताए गए है। उपनिषद् का सारांश इस प्रकार है- पशुपति शिव ही परब्रह्म है । समस्त सृष्टि के वे ही कर्ता धर्ता हैं। शरीर की इंद्रियों की विविध कृतियां उन्हीं की प्रेरणा से हुआ करती हैं। इंद्रया पशु है और शिव हैं उनके पालक अर्थात् पशुपति शिवजी माया विरहित एवं अवर्णनीय परम प्रकाश हैं। साधक को चाहिये कि वह उन्हें अपनी आत्मा के स्थान पर देखे परन्तु माया के प्रभाव के कारण ऐसा करना सभी को संभव नहीं हो पाता। उसके लिये पहले चित्त की शुद्धि होनी चाहिये। चित्त-शुद्धि के पश्चात् क्रम से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् साधक की हृदय ग्रंथियां टूटती हैं और उसे विश्वस्वामित्व का बोध होता है। पाश्चात्यप्रमाणतत्त्वम् - ले. डॉ. श्यामशास्त्री । विषय- पाश्चात्य दर्शन। 1929 में प्रकाशित । पिकदूतम् ले. रुद्र न्यायवाचस्पति (ई. 16 वीं शती) । राधाद्वारा कोयल को दूत बनाकर कृष्ण के प्रति संदेश लेकर मथुरा भेजने की कथा । पिंगलप्रकाश ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । विषय छन्दः शास्त्र | पिंगलसूत्रम् ले. पिंगलाचार्य। यह छन्दः शास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्रधानतया लौकिक साहित्य के लिए लिखा गया है । इस ग्रन्थ में प्रतिपादित तीन अक्षरों के आठ गणों की पद्धति तथा गुरु और लघु वर्णों का निर्धारण करने की पद्धति सर्वत्र इतनी लोकप्रिय हुई कि पूर्वकालीन भरत अथवा जनाश्रय की पद्धति का लोप हो गया। छन्दः शास्त्र की चर्चा अग्निपुराण में (अध्याय 328 से 334) हुई है जिसका पिंगलसूत्रों के प्रतिपादन से साम्य है। पिंगलसूत्र में प्रतिपादित सारा छन्दोविचार "यमाताराजभानसलगाम्" इस सूत्र में कथित ब म त र ज, भ, न, स, इन आठ गणों पर आधारित है। पिंगलसूत्रों में प्रतिपादित अनेक छंद काव्यों में प्रयुक्त नहीं हुए। उत्तरकालीन ग्रंथों में नारायणकृत वृत्तोतिरन तथा चंद्रशेखरकृत यूत्तमौक्तिक For Private and Personal Use Only - संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथ खण्ड / 191 -
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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