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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर भूमिकर न देने का आरोप लगाता है। निराश पिता नायिका की रत्नमाला बेचने प्रभंजन (मार्तण्ड के पिता) के पास जाता है। रत्नमाला को देखकर रहस्य खुलता है कि नायिका वास्तव में मार्तण्ड की बचपन मे खोयी बहन थी जिसे ब्रह्मपद ने पाला था। अन्त में नायिका का रूपकमार के साथ मिलन होता है। पल्लीछवि - ले. उपेन्द्रनाथ सेन। ई. 20 वीं शती। आधुनिक पद्धति का उपन्यास। पल्लीविधानकथा - ले. श्रुतसागरसुनि । जैनाचार्य। ई.16 वीं शती। पल्लीव्रतोद्यनम् - ले. शुभचन्द्र । जैनाचार्य । ई. 16-17 वीं शती। पवनदूतम् - ले. कविराज धोयी। ई. 12 वीं शती के बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के दरबारी कवि थे। “पवनदूत" की कथा इस प्रकार है- गौड देश के नरेश लक्ष्मण सेन दक्षिण -दिग्विजय करते हुए मलयावल तक पहुंचते है। वहां कनकनगरी में रहने वाली कुवलयवती नामक अप्सरा उनसे प्रेम करने लगती है। राजा लक्ष्मण सेन के अपनी राजधानी लौट जाने पर वह अप्सरा उनके विरह में तडपने लगती है। वसंत ऋतु के आगमन पर वह वसंतवायु को दूत बनाकर अपना विरहसंदेश भिजवाती है। कवि ने मलय पर्वत से बंगाल तक के मार्ग का अत्यंत ही मनोरम वर्णन किया है जो कवित्वमय व आकर्षक है तथा राजा लक्ष्मण सेन की राजधानी विजयपुर का वर्णन करते हुए कुवलयवती की अवस्था का वर्णन अंकित किया है। अंत में कुवलयवती का संदेश है। इस संदेशकाव्य में मंदाक्रांता छंद में कुल 104 श्लोक हैं। अंतिम 4 श्लोकों में कवि ने स्वयं का परिचय दिया है। इसमें "मेघदूत" की भांति पूर्वभाग व उत्तर भाग नहीं हैं, मेघदूत का अनुकरण करते हुए भी कवि ने नूतन उद्भावनाएं की है। सर्वप्रथम म.म.हरप्रसाद शास्त्री ने इसके अस्तित्व का विवरण स्वरचित संस्कृत हस्तलिखित पोथियों के विवरण विषयक ग्रंथ के प्रथम भाग में दिया था। पश्चात् 1905 ई. में मनमोहन घोष ने इसका एक संस्करण प्रकाशित किया किंतु वह एक ही हस्तलेख पर आधत होने के कारण भ्रष्ट पाठों से युक्त था। अभी कलकत्ते से इसका शुद्ध संस्करण प्रकाशित हुआ है। 2) ले. वादिचन्द्रसृरि। गुजरात के निवासी। गुरु- ज्ञानभूषण भट्टारक। समय 17 वीं शती के आसपास। इस काव्य में मेघदूत के अनुकरण पर कुल 101 श्लोक मंदाक्रांता छंद में लिखे हैं। इसमें कवि ने विजयनरेश नामक उज्जयिनी के एक राजा का वर्णन किया है जो अपनी पत्नी के पास पवन द्वारा संदेश भेजता है। विजयनरेश की पत्नी तारा को अशनिवेग नामक विद्याधर हरण कर ले जाता है। रानी के वियोग मे दुःखित होकर राजा पवन के द्वारा उसके पास संदेश भेजता है। पवन उसके पास जाकर उसे राजा का संदेश देता है और अशनिवेग की सभा में जाकर तारा को उसके पति को लौटाने की प्रार्थना करता है। विद्याधर उसकी बात मानकर तारा को पवन के हाथ सौंप देता है। इस प्रकार तारा अपने पति के पास आ जाती है। "पवन-दूत' का, हिंदी अनुवाद सहित, प्रकाशन हिन्दी जैन-साहित्य प्रकाशिका कार्यालय, मुंबई से हो चुका है।। 3) ले. सिद्धनाथ विद्यावागीश। पवनविजय (या स्वरोदय)- ईश्वर- पार्वती संवादरूप ग्रंथ । श्लोक- 494। विषय- इसमें दाहिनी और बायी नासिका से निकली श्वास वायु से युद्ध, वशीकरण, रोग आदि कतिपय कार्यों में शुभाशुभ फल का ज्ञान होता है, यह प्रतिपादित है। पशुबंधसूत्रम् - ले. कात्यायन। विषय- कर्मकाण्ड। पाकयज्ञनिर्णय (नामान्तर पाकयज्ञपद्धति)- ले. चन्द्रशेखर । पिता- उमाशंकर (उमणभट्ट) ई. 16-17 वीं शती। पाकयज्ञनिर्णय - ले. पशुपति । पाकयज्ञप्रयोग - ले. शम्भुभट्ट। पिता- बालकृष्ण। ई. 17 वीं शती। आपस्तम्ब धर्मसूत्र का अनुसरण इस ग्रंथ में किया है। पाखण्डधर्मखण्डनम् (रूपक)- ले. दामोदर। रचनाकाल1636 इसवी। ऋषि-आश्रम, सारङ्गपुर, अहमदाबाद से ब्रह्मर्षि हरेराम पण्डित द्वारा 1931 ई. में प्रकाशित। तीन अंकों की नाटकसदृश इस रचना में संवाद प्रायः पद्यात्मक हैं। अभिनयोचित सामग्री की कमी है। कथानककलि के प्रभाव से धार्मिक प्रवृत्तियों को दूषित होते देख घृणा के परवश होकर यह नाटक लिखा गया। इसमें क्रमशः जैन मतावलम्बी, सौगत, वल्लभ, वैष्णव, श्रुति धर्म और अन्त में कलि का राजदूत आता है और अपने अपने पंथ की इनमें से प्रत्येक व्यक्ति प्रशंसा करता है। पाखण्ड की निर्भर्त्सना के पश्चात् सद्धर्म का उपदेश है। पाखंडमतखंडनम् - ले. विश्वास भिक्षु। ई. 14 वीं शती। काशी निवासी। पांचरात्र-संहिता - पांचरात्र संप्रदाय की साहित्यिक संपत्ति विपुल है किन्तु अभी तक उसका बहुत ही अल्प अंश प्रकाशित हुआ है। प्रकाशित अंश भी दक्षिण भारत में तेलग लिपि में ही अधिक है। नागरी लिपि में प्रकाशित पांचरात्र ग्रंथ बहुत कम हैं। कपिजल-संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों के निर्देशानुसार पांचरात्र संहिताओं की संख्या 215 है। इनमें अगस्त्य-संहिता, काश्यप-संहिता, नारदीय-संहिता, वासुदेव-संहिता, विश्वामित्र-संहिता आदि मुख्य हैं। किन्तु इनमें से निम्न 16 संहिताएं ही अब तक प्रकाशित हुई हैं 1) अहिर्बुध्यसंहिता- (नागरी)- अड्यार लाईब्रेरी मद्रास, 1916 (तीन खंडों में) 2) ईश्वरसंहिता- (तेलगु)- सद्विद्या प्रेस, मैसूर 1890 । (नागरी) सुदर्शन प्रेस कांची, 1932 । संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथ खण्ड/187 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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