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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिया “आपने मेरा त्याग किया वह ठीक है किंतु किसी भी स्थिति में जैन धर्म का त्याग न करना"। सीता का संदेश लेकर मेनापति लौट पडा। सीता वहीं पर बैठी विलाप करती रही। संयोगवंश उसी समय पुंडरीकपुर के राजा वज्रजंघ वहां पहुंचे। सीता का विलाप सुनकर वे द्रवित हो उठे। उन्होंने सीता की सांत्वना की, उन्हें अपनी बहन माना और उनको अपने महल में ले गए। नौ मास पुरे होने पर, सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया। उनके नाम रखे गए- अनंगलवण और लवणांकुश। राजा वज्रजंघ के महल में सीता का पदार्पण होने के कारण उनका राज्य वैभव वृद्धिंगत हुआ था। अतः अपनी 32 कन्याएं अनंगलवण को देने का उन्होंने निश्चय किया। लवणांकुश की वधू नियोजित की गई पृथु राजा की कन्या कनकमाला। सीता के उभय पुत्रों को धनुर्विद्या में पारंगत बनाकर वज्रजंघ ने उनके द्वारा दिग्विजय संपन्न कराये। एक दिन नारद पुंडरीकपुर पहुंचे और उन्होंने दोनों कुमारों को बताया कि वे राम के पुत्र हैं। नारद ने राम का चरित्र भी उन्हें विस्तारपूर्वक सुनाया। यह विदित होने पर कि राम ने उनकी माता को गर्भिणी होते हुए भी अन्यायपूर्वक वन में एकाकी छोड दिया, दोनों कुमार क्रोध से भर उठे। वज्रजंघ की सेना लेकर उन्होंने अयोध्या पर धावा बोल दिया। उनका और राम का घनघोर युद्ध छिड गया। किसी भी शस्त्र के प्रयोग से उनका पराभव न होता देख राम को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी सिद्धार्थ नामक एक व्यक्ति ने वहां पहुंच कर राम को बताया कि जिनसे वे युद्ध कर रहे हैं, वे उन्हीं के पुत्र है। यह जानकर राम को बडी प्रसन्नता हुई और उन्होंने शस्त्र का त्याग कर दोनों कुमारों को गले लगाया। इससे सारा वातावरण आंनद में बदल गया। तत्पश्चात् सभी लोगों की प्रार्थना पर राम ने सीता को वहां बुलवाया और अपने विशुद्ध चारित्र्य के प्रमाणस्वरूप अग्नि-परीक्षा देने को कहा। सीता उस परीक्षा हेतु प्रस्तुत हुई। पंच-परमेष्ठियों का स्मरण कर वह अग्निकुंड में कूद पडी। दूसरे ही क्षण वह अग्निकुंड, . जलकुंड में परावर्तित हुआ और उससे बहने वाले तीव्र जल-प्रवाह में उपस्थित लोग डूबने लगे। सर्वत्र हाहाकार मच गया। तब राम द्वारा उस जल को पद-स्पर्श किया जाते ही वह प्रवाह शांत हुआ और उपस्थित जनों को उस संकट से मुक्ति मिली। फिर अपने दोनों कुमारों के सम्मुख राम ने सीता से क्षमा-याचना की और अपने साथ राजमहल चलने की प्रार्थना की किन्तु सीताजी को अब वैराग्य प्राप्त हो चुका था। अतः वे पुनः वन में गई और वे तपःप्रभाव से अच्युत स्वर्ग में प्रविष्ट हुई। फिर कुछ ही दिनों पश्चात् लक्ष्मण ने देहत्याग किया। किन्तु उन्हें स्वर्ग के बदले नर्क प्राप्त हुआ। राम ने भी वैराग्य प्राप्त कर तपस्या प्रारंभ की। कुछ ही दिनों में क्षपणक की श्रेणी प्राप्त करते हुए वे केवली बने। सीता के जीव ने नर्क में जाकर लक्ष्मण के जीव को देखा। उसने धर्मोपदेश करते हुए लक्ष्मण के जीव के प्रति सहसंवेदना व्यक्त की। लक्ष्मण के जीव को नर्क से बाहर निकालने का भी प्रयास किया। परंतु सीता का जीव इस कार्य में सफल न हो सका। अल्प काल में पश्चात् राम ने निर्वाण प्राप्त किया। ___संस्कृत भाषा में लिये गए प्रस्तुत पद्मरित (पद्मपुराण) तथा प्राकृत भाषा के "पउमचरिय' की कथा एक जैसी है। दोनों ग्रंथों को पढने पर यह भी स्पष्ट होता है कि इनमें से एक ग्रंथ, दूसरे ग्रंथ का अनुवाद है। तो फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि मूल ग्रंथ कौन सा है और अनूदित किसे माना जाएं। इस प्रश्न पर पौर्वात्य तथा पाश्चात्य विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है। उन सभी के तर्क-वितकों को ध्यान रखते हुए श्री. नाथूलाल प्रेमी ने जो विवेचन किया, उसका सारांश इस प्रकार है : "प्राकृत से संस्कृत में अनूदित किया गया प्राचीन जैन साहित्य विपुल मिलता है किन्तु इतने बड़े संस्कृत ग्रंथ का प्राकत में अनुवाद किये जाने का उदाहरण एक भी नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त उपरोक्त दोनों ग्रंथों में से पउमचरित्र में यदि संक्षेप परिलक्षित होता है, तो पद्मचरित में विस्तार दिखाई देता है। इन तथा इन्हीं प्रकार के अन्य अनेक अंतर्गत प्रमाणों के आधार पर मानना पडता है कि श्री. रविषेण ने प्राकृत के 'पउमचरिय' का ही पद्मपुराण के नाम से संस्कृत में विस्तारपूर्वक अनुवाद किया है।" पद्मपुष्पांजलिस्तोत्रम् - ले- श्रीशंकराचार्य । श्लोक- 2001 पद्मावती-परिणयचम्पू - ले- श्रीशैल। पद्यचूडामणि - ले- बुद्धघोष। भगवान् बुद्ध के चरित्र का चित्रण करने वाला यह महाकाव्य है। बौद्धधर्म का प्रसार तथा प्रचार इस काव्य का उद्देश्य है। 10 सर्ग। मद्रास से 1921 में सटीक प्रकाशित। पद्यपंचरत्नम् (काव्य) - ले- सुब्रह्मण्य सूरि । पद्यपीयूषम् - ले- रामानन्द। ई. 17 वीं शती। पद्यपुष्पांजलि - मूल कतिपय चुने हुवे अंग्रेजी काव्य । अनुवादकर्ता- प्राचार्य व्ही. सुब्रह्मण्य अय्यर । पद्यमुक्तावली - ले- गोविन्द भट्टाचार्य। ई. 17 वीं शती। शाहजहां के मंत्री आसफखान की प्रशस्ति । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण। पद्यमुक्तावली - ले- श्रीभट्ट मथुरानाथ शास्त्री। पद्यवाणी - कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाली यह पत्रिका अब बंद है। पद्यावली - ले- रूप गोस्वामी। ई. 15-16 वीं शती। वैष्णव सिद्धान्त के अनुसार विष्णुभक्तिपर पद्यों का यह संग्रह है। परब्रह्मप्रकाशिका - ले- रघूत्तमतीर्थ । संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड / 183 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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