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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीर्थमहिमा, आश्रमधर्म-निरूपण, नाना प्रकार के व्रत व स्नान, ध्यान व तर्पण का विधान, दानस्तुति, सत्संग का माहात्म्य दीर्घायु होने के सहज साधन, त्रिदेवों की एकता, मूर्तिपूजा, ब्राह्मण व गायत्री मंत्र का महत्त्व, गौ व गोदान की महिमा, द्विजोचित आचार-विचार, पिता एवं पति की भक्ति, विष्णुभक्ति, अद्रोह, पंच महायज्ञों का माहात्म्य, कन्यादान का महत्त्व, सत्यभाषण व लोभत्याग का महत्त्व, देवालयों का निर्माण, पोखरा खुदवाना, देवपूजन का महत्त्व, गंगा, गणेश, व सूर्य की महिमा तथा उनकी उपासना के फलों का महत्त्व, पुराणों की महिमा, भगवन्नाम, ध्यान, प्राणायाम आदि। साहित्यिक दृष्टि से भी इस पुराण का महत्त्व असंदिग्ध है। इसमे अनुष्टुप् के अतिरिक्त बडे-बडे छंद भी प्रयुक्त किये गये हैं। ___ "पद्मपुराण" के कालनिर्णय के संबंध में विद्वानों में एकमत नहीं है। "श्रीमद्भागवत" का उल्लेख, राधा के नाम की चर्चा, रामानुज मत का वर्णन आदि के कारण इसे रामानुज का परवर्ती माना जाता है। अशोक चॅटर्जी के अनुसार इसमें राधा के नाम का उल्लेख हितहरिवंश द्वारा प्रवर्तित “राधावल्लभ संप्रदाय" का प्रभाव सिद्ध करता है। इस संप्रदाय का समय ई. 16 वीं शती है। अतः “पद्मपुराण" का उत्तरखंड 16 वीं शताब्दी के बाद की रचना है। विद्वानों का कथन है कि "स्वर्गखंड' में शकुंतला की कथा महाकवि कालिदास से प्रभावित है तथा इस पर "रघुवंश" व "उत्तर-रामचरित" का भी प्रभाव है। अतः इसका रचनाकाल 5 वीं शती के बाद का है। कालिदास ने 'पद्मपुराण' के आधार पर ही "अभिज्ञान-शाकुंतल'' की रचना की थी, न कि उनका "पदमपुराण' पर ऋण है। इस पुराण के रचनाकाल व अन्य तथ्यों के अनुसंधान की अभी पूरी गुंजाइश है। अतः इसका समय अधिक अर्वाचीन नहीं माना जा सकता। पद्मपुराणम् (पद्मचरितम्) - ले. रविषेण । संस्कृत भाषा में लिखे गए इस जैन पुराण में राम को पद्म नाम है। उन्हें आठवा "बलभद्र" भी कहते हैं। इस ग्रंथ में उन्हीं का चरित्र वर्णित है। रविषेण ने अपने संघ अथवा गण-गच्छ का उल्लेख कहीं पर भी नहीं किया है उनके स्थान का भी निश्चय नहीं हो पाता है किंतु उनके सेन शब्दान्त नाम से अनुमान होता है कि वे सेन संघ के होंगे। उन्होंने अपनी गुरुपरंपरा, इन्द्र सेन, दिवाकर सेन, अर्हत्सेन व लक्ष्मण सेन ऐसी बताई है। प्रस्तुत पुराण में अंकित राम का चरित्र वाल्मीकि रामायण के अनुसार नहीं है। वह जैन संकेतों के अनुसार है। पद्मपुराण की कथा संक्षेप में इस प्रकार है :- राक्षस वंश का रत्नश्रवा नामक एक राजा पाताल में राज्य करता था। उसकी केकसी (कैकसी) नामक रानी थी। उसे चार संताने थी। उनके नाम थे- रावण, कुंभकर्ण, चंद्रनखा और बिभीषण। राजा ने रावण । का दूसरा नाम रखा था दशानन । एक दिन रावण को अपनी मां से विदित हुआ कि पहले उसके पिता (रत्नश्रवा) लंका के राजा थे किंतु रावण के मौसेले भाई वैश्रवण विद्याधर ने रत्नश्रवा से लंका का राज्य छीन लिया। इसी लिये तब से हम लोगों को पाताल लोक में दिन बिताने पड़ रहे हैं। यह सुनकर रावण वैश्रवण का द्वेष करने लगा। उसने विद्यासंपादन द्वारा सामर्थ्यशाली बनने का निश्चय किया। वन में जाकर वह तपस्या करने लगा। जंबुद्वीप में रहने वाले एक यक्ष ने रावण की अनेक प्रकार से परीक्षा ली। उन परीक्षाओं मे सफल होकर रावण ने अनेक विद्याएं हस्तगत की। फिर उसका मंदोदरी से विवाह हुआ। मंदोदरी के अतिरिक्त, रावण ने 6 हजार अन्य कन्याओं से भी विवाह किए। चन्द्रनखा का विवाह हुआ खरदूषण से और उसे शंबूक नामक एक पुत्र हुआ। आगे चलकर रावण ने वैश्रवण से युद्ध करते हुए उसे लंका के बाहर खदेडा और अपने पैतृक राज्य लंका पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। फिर वैश्रवण के पुष्पक विमान में बैठकर रावण से अपनी दक्षिण दिग्विजय संपन्न की। वाली और सुग्रीव नामक दो भाई थे। वे विद्याधर थे, वानर नहीं। रावण द्वारा पराजित होने पर वाली ने सुग्रीव को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं दिगंबर दीक्षा ग्रहण की। हनुमान् थे चरमशरीरी एक महापुरुष। प्रारंभ में वे रावण के मित्र थे। उन्होंने रावण का पक्ष लेते हुए वरुण के विरुद्ध युद्ध किया और विजय प्राप्त होने पर रावण की बहिन चंद्रनग्न, की कन्या अनंगसुकुमा से विवाह किया। एक दिन रावण को विदित हुआ कि उसकी मृत्यु दशरथ व जनक की संतति के हाथों होने वाली है। अतः उन दोनों का वध करने हेतु रावण ने अपने भाई विभीषण को भेजा। किंतु इस बात की सूचना नारद ने उन्हें पहले ही दे दी थी। अतः दशरथ व जनक ने अपना एक एक पुतला बनवाकर अपने अपने महल में रखवा दिया था। उन पुतलों को ही दशरथ व जनक समझकर बिभीषण ने उन दोनों का शिरच्छेद किया और तदनुसार रावण को सूचना दी। तब रावण निश्चिंत हुआ। अयोध्या के राजा दशरथ को कौशल्या, सुमित्रा व सुप्रभा तीन रानीयां थी। एक बार देशभ्रमण करते हुए वे संयोगवश कैकयी के स्वयंवर मे जा पहुंचे। उन्हें देखते ही कैकयी ने उन्हीं के गले मे वरमाला डाली। तब स्वयंवर हेतु एकत्रित अन्य राजागण बौखला उठे। उनके व दशरथ के बीच घमासान युद्ध हुआ। उस युद्ध मे कैकयी ने दशरथ के रथ का सफल संचालन किया। कैकयी के साहस व चातुर्य को देख दशरथ प्रसन्न हुए। उन्होंने कैकयी को वरदान दिया। कैकयी ने कहा उन्हें आप अपने राजभांडार में सुरक्षित रहने दीजिये। जब आवश्यकता पडेगी मैं वह मांग लूंगी। ___ आगे चलकर राजा दशरथ के चार पुत्र हुए - कौशल्या से राम (या पद्य) सुमित्रा से लक्ष्मण, कैकयी से भरत और 180/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खार For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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