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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है आत्मतत्त्व का अस्तित्व । स्वयं टीकाकार ने अपने इस ग्रंथ का उद्देश्य निम्न श्लोक में प्रकट किया है यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद । कुतार्किकाज्ञाननिवृत्तिहेतोः करिष्यते तस्य मया प्रबंधः ।। सुबंधु कृत "वासवदत्ता" में इस ग्रंथ के प्रणेता की महत्ता प्रतिपादित की गई है- "न्यायसंगतिमिव उद्योतकर-स्वरूपाम्" इस उपमा के द्वारा। न्यायवाार्तिकतात्पर्यटीका - ले. भामती-प्रस्थानकार वाचस्पति मिश्र । न्यायवार्तिक पर बौद्ध आक्षेपों का खण्डन । न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका-परिशुद्धि - ले. उदयनाचार्य । न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका पर बौद्ध नैयायिकों द्वारा किये आक्षेपों का खंडन। न्यायविनिश्चय - ले. अकलंकदेव। जैनाचार्य। ई. 8 वीं शती। न्यायशास्त्र का प्रकरण ग्रंथ। न्यायविनिश्चय-विवरणम् - ले. वादिराज । जैनाचार्य। ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध। न्याय-विवरणम् - ले. मध्वाचार्य। द्वैतमत के प्रवर्तक। आचार्यजी ने ब्रह्मसूत्र पर 4 ग्रंथ लिखे। इस ग्रंथ में ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों का निरूपण किया है। न्यायविनिश्चयवृत्ति (टीका)- ले. अनंतवीर्य । ई. 11 वीं शती। न्यायविवरणपंजिका - ले. जिनेन्द्रबुद्धि। यह सबसे प्राचीन काशिका की व्याख्या है। न्यायसंक्षेप - ले. गोविन्द (खन्ना) न्यायवागीश। न्यायसूत्र की टीका। न्याय-संग्रह - ले. प्रकाशात्मयति। ई. 13 वीं शती। न्यायसार - ले. भा-सर्वज्ञ। काश्मीरनिवासी। समय ई.9 वीं शती। "न्यायसार" न्यायशास्त्र का ऐसा प्रकरण है जिसमें न्याय के केवल एक ही "प्रमाण" का वर्णन है और शेष 15 पदार्थों को "प्रमाण" में ही अंतर्निहित कर दिया गया है। इसके प्रणेता ने अन्य नैयायिकों के विपरीत प्रमाण के तीन ही भेद माने हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम जब कि अन्य आचार्य "उपमान" प्रमाण को भी मान्यता देते हैं। "न्यायसार" की रचना नव्यन्याय-शैली पर हुई है। इस पर 18 टीकाएं लिखी गई हैं जिनमें 4 टीकाएं अत्यंत प्रसिद्ध हैं- 1) विजयसिंहगणीकृत "न्यायसार-टीका", 2) जयतीर्थरचित "न्यायसार-टीका", 3) भट्ट-राघवकृत "न्यायसार-विचार" और 4) जयसिंह सूरि रचित "न्याय-तात्पर्य-दीपिका"। न्यायसूत्रम् - ले. अक्षपाद गौतम। ई. पूर्व चौथी शती। यह न्यायशास्त्र का मूल सूत्रग्रंथ है। इसके पांच अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय के दो भाग किये हुए हैं। प्रत्येक भाग को "आह्निक' नाम दिया है। इसके पहले अध्याय में 11 प्रकरण व 61 सूत्र, दूसरे अध्याय में 12 प्रकरण व 137 सूत्र, तीसरे अध्याय में 16 प्रकरण व 145 सूत्र, चौथे अध्याय में 20 प्रकरण व 118 सूत्र तथा पांचवें अध्याय में 24 प्रकरण व 67 सूत्र हैं, ऐसा वृद्धवाचस्पति मिश्र ने अपने न्यायसूची निबंध में लिखा है। न्यायसूत्र ग्रंथ के कुछ प्रसिद्ध सूत्र इस प्रकार हैं प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टांत-सिद्धान्त-अवयवतर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितंडा-हेत्वाभास-च्छल-जाति -निग्रहस्थानानां-तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । (न्यायसूत्र 1.1.1) अर्थ- प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति व निग्रहस्थान (इन 16 पदार्थों) के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि । (न्या. सू. 1.1. 3.) अर्थ- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व शब्द हैं चार प्रमाण । इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्य मव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। (न्या.सू.1.1.4.) अर्थ- इन्द्रिय व विषय के संबंध से उत्पन्न संशयरहित व अव्यभिचारी ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। अर्थात्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टं च । (न्याय.सू. 1.1.5.) अर्थ- अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक है और उसके तीन प्रकार हैं पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतो दृष्ट। प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम् (न्या,सू.1.1.6) अर्थ-साधर्म्य प्रसिद्ध होने के कारण साध्य के साधन को उपमान प्रमाण कहते हैं। इस प्रकार प्रथम अध्याय में सोलह पदार्थों के नाम कौर लक्षण बताकर, शेष ग्रंथ में उन लक्षणों की परीक्षा की गई है। दूसरे अध्याय के पहले आह्निक में संशय, प्रमाण-सामान्य, प्रत्यक्ष, अवयव, अनुमान, वर्तमान, शब्दसामान्य और शब्दविशेष शीर्षक- आठ प्रकरण हैं तथा दूसरे आह्निक में प्रमाणचतुष्टय, शब्दनित्यत्व, शब्दपरिणाम एवं शब्दपरीक्षा-शीर्षक चार प्रकरण हैं। तीसरे अध्याय के पहले आह्निक में आत्मा, शरीर, विभिन्न इन्द्रिय तथा इन्द्रियों के विषयों का विस्तृत विवेचन है और उसके साथ ही है इन्द्रियभेद, देहभेद, चक्षुरद्वैत, मनोभेद, अनादिनिधन, शरीरपरीक्षा, इन्द्रियपरीक्षा, इन्द्रियनानात्व तथा अर्थपरीक्षा का भी विवेचन । दूसरे आह्निक में बुद्धि, मन और अदृष्ट इन विषयों का वर्णन है। चौथे अध्याय के पहले आह्निक में प्रवृत्ति और दोष के न्यायसिद्धान्तमंजरी - ले. जानकीनाथ शर्मा। न्यायसिद्धान्तमंजरीभूषा - ले. नृसिंह न्यायपंचानन । न्यायसिद्धान्तमाला - ले. जयराम न्यायपंचानन। यह न्यायसूत्र की टीका है। 172 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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