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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6) नरहरि, 7) चाण्डु पण्डित (दीपिका, इ. 1296 में लिखित), 8) चरित्रवर्धन, 9) नारायण, 10) भगीरथ, 11) भरतमल्लिक या भरतसेन, 12) भवदत्त, 13) मथुरानाथ, 14) मल्लिनाथ, 15) महादेव, 16) विद्यावागीश, 17) शेष रामचन्द्र, 18) श्रीनाथ, 19) वंशीवादन, 20) विद्याधर, 21) विद्यारण्य योगी, 22) विश्वेश्वर, 23) श्रीदत्त, 24) सदानन्द, 25) गदाधर, 26) लक्ष्मणभट्ट, 27) गोविन्द मिश्र, 28) प्रेमचन्द्र, 29) श्रीधर, 30) परमानन्द, 31) चक्रवर्ती, 32) सर्वज्ञ माधव, 33) विद्याश्रीधर देवसूरि और 34) विश्वेश्वर पांडेय इत्यादि । न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय की व्याख्या) - ले. प्रभाचन्द्र।। जैनाचार्य। इनके समय के बारे में दो मान्यताएं हैं। 1) ई. 8 वीं शती 2) ई. 11 वीं शती।। न्यायकुसुमकारिका- व्याख्या - ले. रघुदेव न्यायालंकार। न्यायकुसुमांजलि - सुप्रसिद्ध मैथिल नैयायिक उदयनाचार्य की सर्वश्रेष्ठ रचना (984 ई.) अपने अन्य तीन ग्रंथों के समान उदयनाचार्य ने इस ग्रंथ में भी ईश्वर की सत्ता को सिद्ध कर बौद्ध नैयायिकों के मत का निरास किया है। इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य ईश्वर, सिद्ध ही है। इसकी रचना कारिका व वृत्ति शैली में हुई है। स्वयं उदयनाचार्य ने अपनी कारिकाओं पर विस्तृत व्याख्या लिखी है जो उनकी प्रौढप्रज्ञा का परिचायक है। हरिदास भट्टाचार्य ने इस पर अपनी व्याख्या लिखकर इस ग्रंथ के गूढार्थ का उद्घाटन किया है। बौद्ध विद्वान् कल्याणरक्षित कृत “ईश्वर-भंगकारिका" (829) का खंडन प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया है। न्यायकुसुमांजलिकारिकाव्याख्या - 1) ले. हरिदास न्यायालंकार भट्टाचार्य। 2) ले. रामभद्र सार्वभौम, 3) ले. जयराम न्यायपंचानन। न्यायकुसुमांजलिविवेक - ले. गुणानन्दविद्यावागीश। न्यायतत्त्वम् - ले. नाथमुनि । दक्षिण भारत के एक वैष्णव आचार्य। ई. 9 वीं शती। उस ग्रंथ को विशिष्टाद्वैत मत का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। नाथमुनि ने दो और ग्रंथ लिखे हैं। उनके नाम हैं- पुरुषनिश्चय और योगरहस्य । न्यायतन्त्रबोधिनी - ले. विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन । न्यायदीपिका - 1) ले. अभिनव धर्मभूषणाचार्य (धर्मभूषण) जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। 2) ले. भावसेन विद्य। जैनाचार्य। ई. 13 वीं शती। न्यायप्रदीप-ले. विश्वशर्मा । केशव मिश्र की तर्कभाषा पर टीका। न्यायप्रवेश - ले. दिङ्नाग। ई. वीं शती। मूल संस्कृत ग्रंथ आचार्य ए.बी. ध्रुव द्वारा सम्पादित। तिब्बती संस्करण विधुशेखर भट्टाचार्य द्वारा संपन्न। एच.एन. रेण्डल ने उद्धरणों में प्राप्त संस्कृत अंशों का अनुवाद किया है। न्यायप्रवेशतर्कशास्त्रम् - ले. शंकरस्वामी। व्हेन सांग ने इसका चीनी अनुवाद सन 647 ई. में किया । न्यायबिन्दु - ले. धर्मकीर्ति । ई. 7 वीं शती। बौद्धन्याय पर सत्ररूप रचना। प्रथम प्रकरण में प्रमाण के लक्षण तथा प्रत्यक्ष के भेद। द्वितीय में अनुमान के प्रकार और हेत्वाभास तथा तृतीय में परार्थानुमान वर्णित है। ई. 9 वीं शताब्दी में। धर्मोत्तराचार्य ने इस पर लिखी टीका प्रकाशित हुई है। न्यायबिन्दुपूर्वपक्ष - ले. कमलशील। ई. 8 वीं शती। मूल ग्रंथ अप्राप्य। तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है। धर्मकीर्तिकृत न्यायबिंदु नामक ग्रंथ पर लिखी हुई टीका का सारांश इस ग्रंथ का विषय है। न्यायभास्कर - ले. अनन्ताल्वार। विषय- “शतकोटि" का खण्डन। प्रस्तुत न्यायभास्कर का खण्डन राजू शास्त्रिगल ने अपने न्यायेन्दुशेखर में किया है तथा शैवाद्वैत की स्थापना की है। न्यायमंजरी - 1) ले. प्रसिद्ध न्यायशास्त्री जयंतभट्ट ने अपने इस न्यायशास्त्रीय ग्रंथ में “गौतम-सूत्र" के कतिपय प्रसिद्ध सूत्रों पर प्रमेयबहुला वृत्ति प्रस्तुत की है। इसमें चार्वाक, बौद्ध मीमांसा व वेदांत-मतावलंबियों के मतों का खंडन किया गया है। ग्रंथ की भाषा प्रासादिक है। "न्यायमंजरी" में वाचस्पति मिश्र व ध्वन्यालोककार आनंदवर्धन का उल्लेख है। अतः इसका रचनाकाल नवम शतक का उत्तरार्ध सिद्ध होता है। यह वृत्ति, न्यायशास्त्र पर एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। 2) नृसिंहाश्रम। ई. 9 वीं शती। न्यायमुक्तावलि - ले. दीक्षित राजचूडामणि । ई. 17वीं शती। न्याय-रत्नमाला - ले. पार्थसारथी मिश्र। समय-ई. 10 से 12 वीं शती के बीच। मीमांसा-दर्शन के भाट्टमत के आचार्य पार्थसारथि मिश्र की यह एक मौलिक रचना है। इस ग्रंथ में स्वतःप्रामाण्य व व्याप्ति इत्यादि 7 विषयों का विवेचन है। इस पर रामानुजाचार्य ने (17 वीं शती) "नाणकरत्न" नामक व्याख्या ग्रंथ की रचना की है। न्यायरत्नावली - ले. कृष्णकान्त विद्यावागीश। न्यायरहस्यम् - ले. रामभद्र सार्वभौम । न्यायसूत्र की टीका । न्यायलीलावती-प्रकाश-दीधिति - ले. रघुनाथ शिरोमणि । न्यायलीलावती-प्रकाश-दीधिति-विवेक - ले. गुणानन्द विद्यावागीश। न्यायलीलावती-दीधिति-व्याख्या - ले. जगदीश तर्कालंकार। न्यायलीलावती-रहस्यम् - ले. मथुरानाथ तर्कवागीश। न्यायवार्तिकम् - ले. उद्योतकर। "वात्स्यायन-भाष्य" का यह टीका-ग्रंथ है। उद्योतकर का समय ई. 6-7 वीं शती। इस ग्रंथ का प्रणयन दिङ्नाग, वसुबन्धु नागार्जुन आदि बौद्ध नैयायिकों के तर्कों का खंडन करने हेतु हुआ है। इस ग्रंथ में बौद्ध मत का पांडित्यपूर्ण निरास कर आस्तिक न्यायदर्शन की निर्दुष्टता प्रमाणित की गई है। शास्त्रार्थ का प्रमुख विषय संस्कृत कश्मय कोश - ग्रंथ खण्ड /171 For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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