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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के तत्त्वज्ञान के मार्मिक विचार अन्य किसी भी धर्म के मूलग्रंथ में दिखाई नहीं देते। इसी प्रकार आध्यात्मिक विचारों से ओतप्रोत इनके समान इतना प्राचीन लेख भी अब तक कही पर भी उपलब्ध नहीं हुआ है। ___ इस सूत्रातंर्गत विषयों का आगे चलकर भारत के ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों एवं उनके बाद के वेदांतशास्त्र विषयक ग्रंथों में तथा पाश्चिमात्य देशों के कांट प्रभृति आधुनिक तत्त्वज्ञानियों ने बडा ही सूक्ष्म परीक्षण किया है। निकुंज बिरुदावली- ले. विश्वनाथ चक्रवर्ती । ई. 17 वीं शती। निगमकल्पद्रुम - श्लोक 600। शिव-पार्वती संवादरूप। 10 पटलों में पूर्ण। विषय- पंचमकारों की प्रशंसा, पंच मकारों की शुद्धि का कारण, परम साधन का निर्देश, स्त्री माहात्म्य, उसके अंग विशेषों के प्रभेद, उसके पूजनादि कथन, उसके साधन विशेषों का प्रतिपादन, पंचतत्त्व आदि का शोधन, मांस विशेषादि कथन इत्यादि। निगमकल्पलता - श्लोक 500। पटल 22 । निगमतत्त्वसार - आनन्दभैरवी और आनन्दभैरव संवादरूप। 11 पटलों में पूर्ण। श्लोक 437। विषय- तत्त्वसार और ज्ञानसार का निर्देश। मंत्र आदि की साधना। स्तव और कवच का साधन । चण्डीपाठ का क्रम। प्राण, अपान आदि 5 वायुओं में से किन्हीं से मन का संयोग होने पर, मन का क्रियाभेद हो जाता है। पंचतत्त्वों के शोधन का प्रकार, संविदाशोधन विधि आदि। निगमलता (तन्त्र) - इसकी कोई प्रति 24 पटलों में पूर्ण है तो कोई 27 पटलों मे पूर्ण है और किसी की पूर्ति 44 पटलों में हुई है। इसमें बहुत सी देव-देवियां वर्णित हैं। विरोचन, शंख, मामक, असित, पद्मान्तक, नरकान्तक, मणिधारिवज्रिणी, महाप्रतिसरा तथा अक्षोभ्य ये कहीं पर ऋषिरूप में वर्णित हैं। यह तंत्र कौल पूजा का प्रतिपादक है। निगमसारनिर्णय - ले. रामरमणदेव। विषयकालिका-मंत्रविधान, कालिका के ध्यान पूजन इ.। निगमानन्द-चरित्रम् (नाटक) - ले. जीव न्यायतीर्थ (जन्म 1894) 1952 में प्रकाशित। उसी वर्ष राममोहन लायब्रेरी हाल, कलकत्ता में अभिनीत । अंकसंख्या सात। निघण्टु - वेदों में प्रयुक्त कठिन शब्दों का संग्रह अथवा कोश। यास्क ने इसे “समाम्नाय कहा है। महाभारत के अनुसार (शांति 342.86-87) इस के कर्ता हैं प्रजापति काश्यप। निघंटु के पांच अध्याय हैं। प्रथम तीन अध्यायों को "नैघण्टुक कांड" कहते हैं। इसमे एकार्थवाचक शब्द संग्रह है। चौथे अध्याय को "नैगम कांड" कहते हैं। इसमें अग्नि से लेकर देवपत्नी तक वैदिक देवताओं के नाम दिये हैं। यास्क का निरुक्त, इस निघंटु पर ही आधारित है। जिस “निघण्टु" पर यास्क की टीका है, उसमें 5 अध्याय हैं। प्रथम 3 अध्याय, (नघण्टुक काण्ड) शब्दों की व्याख्या निरुक्त के द्वितीय व तृतीय अध्यायों में की गई है। इनकी शब्दसंख्या 1314 है, जिनमें से 230 शब्दों की ही व्याख्या की गई है। चतुर्थ अध्याय को नैगमकाण्ड व पंचम अध्याय को दैवतकाण्ड कहते हैं। नैगमकाण्ड मे 3 खंड हैं, जिनमे 62, 64 व 132 पद हैं। ये, किसी के पर्याय न होकर स्वतंत्र हैं। नैगमकाण्ड के शब्दों का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। दैवतकाण्ड के 6 खंडों की पदसंख्या 3, 13, 36, 32, 36 व 31 है जिनमें विभिन्न वैदिक देवताओं के नाम हैं। इन शब्दों की व्याख्या, "निरुक्त" के 7 वें से 12 वें अध्याय तक हुई हैं। डॉ. लक्ष्मणसरूप के अनुसार, 'निघण्टु" एक ही व्यक्ति की कृति नहीं है पर विश्वनाथ काशीनाथ राजवाडे ने इनके कथन का सप्रमाण खंडन किया है। कतिपय विद्वान् निरुक्त व निघण्टु दोनों का ही रचयिता यास्क को ही स्वीकार करते हैं। स्वामी दयानंद व पं भगवद्दत्त के अनुसार जितने निरुक्तकार हैं वे सभी निघण्टु के रचयिता हैं। आधुनिक विद्वान् सर्वश्री रॉय, कर्मकर, लक्ष्मणसरूप तथा प्राचीन टीकाकार स्कंद, दुर्ग व महेश्वर ने निघण्टु के प्रणेता अज्ञातनामा लेखक को माना है। दुर्ग के अनुसार निघण्टु श्रुतर्षियों द्वारा किया गया संग्रह है। अभी तक निश्चित रूप से यह मत प्रकट नहीं किया जा सका है कि निघण्टु का प्रणेता कौन है। निघण्टु पर केवल एक ही टीका उपलब्ध है जिसका नाम है "निघंटुनिर्वचन"। देवराज यज्वा नामक एक दाक्षिणात्य पंडित इस टीका के लेखक हैं। उन्होंने नैघंटुक कांड का ही निर्वचन विस्तारपूर्वक किया है। तुलनात्मक दृष्टि से अन्य कांडों का निर्वचन अत्यल्प है। इस टीका का उपोद्घात, वेदभाष्यकारों का इतिहास जानने के लिये अत्यंत उपयुक्त सिद्ध हुआ। देवराज यज्वा के काल के बारे में मतभेद है। कोई उन्हें सायण के पहले का मानते हैं तो कोई बाद का। किंतु श्री. बलदेव उपाध्याय के मतानुसार उन्हें सायण के पहले का माना ही उचित होगा। भास्करराय नामक एक प्रसिद्ध तांत्रिक ने एक छोटा सा ग्रंथ लिखकर निघंटु के सभी शब्दों को अमरकोश की पद्धति पर श्लोक बद्ध किया है। नित्यकर्मपद्धति - (अपरनाम श्रीधरपद्धति)। ले. श्रीधर । प्रभाकर नायक के पुत्र । यह ग्रंथ कात्यायनसूत्र पर आधारित है। नित्यकर्मप्रकाशिका - ले. कुलनिधि। नित्यकर्मलता - ले. धीरेन्द्र पंचीभूषण। पिता-धर्मेश्वर। नित्यातन्त्रम् - नित्या (तन्त्रसार में उक्त) काली का एक भेद है। इस ग्रंथ में उनकी तांत्रिक पूजा वर्णित है । श्लोक - 14651 नित्यदानादिपद्धति - ले.- शामजित् त्रिपाठी। नित्यदीपविधि - रुद्रयामल से संकलित। श्लोक - 460। 162 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथ खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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