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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में, "इनके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती"- इस प्रकार का वाक्य न लिखते हुए मौन स्वीकार किया है। अन्यथा उसी वाक्य की पुनरुक्ति अनेक स्थानों पर करनी पड़ती, जिससे कोश की मात्र अक्षरसंख्या बढ़ जाती। कुछ प्रविष्टियों में, निवेदन के अन्तर्गत वाक्यों से ही स्थल, काल का अनुमान सहजता से हो जाता है। ऐसी प्रविष्टियों में स्थल-काल आदि निर्देश पृथक्ता से हमने नहीं किया। ग्रंथकार के विशिष्ट निवासस्थान की जानकारी जहाँ नहीं मिली ऐसे स्थानों में उसके प्रदेश का निर्देश किया है। गुरु परंपरा को हमारी संस्कृति में विशेष महत्त्व होने के कारण प्रायः सर्वत्र गुरु का निर्देश किया है। वेदशाखा और गोत्र तथा आश्रयदाता का भी यथासंभव निर्देश करने का सर्वत्र प्रयास हुआ है। ग्रंथकार खंड की प्रविष्टियों में ग्रंथकारों के जितने ग्रंथों का उल्लेख किया है उन सभी ग्रंथों का परिचय कोश के ग्रंथ खंड में नहीं मिलेगा। परंतु ग्रंथ खंड में जिन ग्रंथों के संक्षेपतः परिचय दिए हैं उनके लेखकों का ग्रंथकार खंड में संभवतः परिचय मिलेगा। इस नियम में भी अपवाद भरपूर हैं और इन अपवादों का कारण है हमारी सीमित शक्ति एवं जानकारी की अनुपलब्धि। आधुनिक महाराष्ट्र में कुलनामों का प्रचार अधिक होने के कारण प्रायः सभी महाराष्ट्रीय ग्रंथकारों का निर्देश कुलनाम, व्यक्तिनाम और पितृनाम इस क्रम से किया है। (जैसे केतकर, व्यंकटेश बापूजी)। परंतु प्राचीन ग्रंथकारों की प्रविष्टियों में इस नियम के अपवाद मिलेंगे। ___ इस कोश में हस्तलिखित एवं उल्लिखित ग्रंथों तथा ग्रंथकारों का परचिय प्रायः नहीं दिया है। इस नियम के भी कुछ अपवाद मिलेंगे। आधुनिक दाक्षिणात्य समाज में नामों का निर्देश, ए.बी.सी. इत्यादि अंग्रेजी वर्णों का प्रयोग कुलनाम या मूल निवासस्थान के आद्याक्षर की सूचना के हेतु उपयोग में लाया जाता है। अतः आधुनिक दाक्षिणात्य ग्रंथकारों के नामों की प्रविष्टी उन अंग्रेजी आद्याक्षरों के अनुसार की है। जैसे बी. श्रीनिवास भट्ट यह प्रविष्टि ब के अनुक्रम में मिलेगी। इस कोश के ग्रंथकार खंड में केवल संस्कृत भाषा को ही जिन्होंने अपनी वाङ्मय सेवा का माध्यम रखा ऐसे ही ग्रंथकारों का उल्लेख अभिप्रेत है। फिर भी हिन्दी, मराठी, बंगला, तमिल, तेलुगु इत्यादि प्रादेशिक भाषाओं के जिन ख्यातनाम लेखकों ने संस्कृत में भी कुछ वाङ्मय सेवा की है, उनका भी उल्लेख यथावसर ग्रंथकार खंड में हुआ है। 19 वीं शताब्दी से जिन पाश्चात्य पंडितों ने संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान शोधकार्य के द्वारा किया है, उनमें से कुछ विशिष्ट महानुभावों के परिचय ग्रंथकार खंड में मिलेंगे। पाश्चात्य पद्धति से प्रभावित कुछ आधुनिक भारतीय लेखकों का भी इसी प्रकार निर्देश हुआ है। ऐसी प्रविष्टियां अपवाद स्वरूप समझनी चाहिए। कोश की प्रत्येक प्रविष्टि के साथ संदर्भ ग्रंथों का निर्देश इस लिए नहीं किया कि उस निमित्त विशिष्ट ग्रंथों का निर्देश बारंबार होता और उस पुनरुक्ति से अकारण अक्षरसंख्या में वृद्धि होती। प्रविष्टियों में अन्तर्भूत जानकारी अन्यान्य ग्रंथों से संकलित की है और उसका अनावश्यक भाग छांट कर संक्षेप में लिखी गई है। अनेक प्रविष्टियों में आधारभूत ग्रंथों के वाक्य यथावत् मिलेंगे। उनके लेखकों को हम अभिवादन करते है। अनवधान तथा अनुपलब्धि के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण प्रविष्टियों के अनुल्लेख के लिए तथा कुछ उपेक्षणीय प्रविष्टियों के अन्तर्भाव के लिए सुज्ञ पाठक क्षमा करेंगे। भ्रम और प्रमाद मानवी बुद्धि के स्वाभाविक दोष हैं। हम अपने को उन दोषों से मुक्त नहीं समझते। फिर भी प्रविष्टियों के अन्तर्गत जानकारी में जो भी त्रुटियां अथवा सदोषता विशेषज्ञों को दिखेगी, उसका कारण जिन ग्रंथों के आधार पर उस जानकारी का संकलन हुआ वे हमारे आधार ग्रंथ हैं। प्रविष्टियों में प्रायः अपूर्ण सी वाक्यरचना दिखेगी। अनावश्यक शब्दविस्तार का संकोच करने के लिए यह टेलिग्राफिक (तारवत्) वाक्यपद्धति हमने अपनाई है। संस्कृत ग्रंथों के नाम मूलतः विभक्त्यन्त होते हैं। परंतु इस कोश में ग्रंथनामों का निर्देश विभक्ति प्रत्यय विरहित किया है। जैसे अभिज्ञान- शाकुंतल, किरातार्जुनीय, ब्रह्मसूत्र, इत्यादि। संस्कृत वाङ्मय दर्शन - सामान्य रूपरेखा प्रस्तुत कोश का संपादन तथा संकलन दो विभागों में करने का संकल्प प्रारंभ से ही था, तदनुसार दोनों खण्ड एक साथ प्रकाशित हो रहे हैं- प्रथम खण्ड में ग्रंथकारों का और द्वितीय खण्ड में ग्रन्थों का परिचय वर्णानुक्रम से ग्रथित हुआ है। किन्तु इस सामग्री के साथ और भी कुछ अत्यावश्यक सामग्री का चयन दोनों खडों में किया है। प्रथम खण्ड के प्रारंभिक विभाग के अंतर्गत "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" का समावेश हुआ है। संस्कृत वाङ्मय के अन्तर्गत, सैकड़ों लेखकों ने जो मौलिक विचारधन विद्यारसिकों को समर्पण किया, उसका समेकित परिचय विषयानुक्रम से देना यही इस वाङ्मयदर्शनात्मक विभाग का उद्देश्य है। संस्कृत वाङ्मय का वैशिष्ट्यपूर्ण विचारधन ही भारतीय संस्कृति For Private and Personal Use Only
SR No.020650
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages638
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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